आदरणीय साथिओ,
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शानदार प्रस्तुति करण आदरणीय।
भाई महेंद्र कुमार जी, बार-बार पढने के बावजूद भी मेरे तो ऊपर से निकल गई यह रचना. एक विद्वान् ने कहा था कि "एबस्ट्रेक्ट" उसी हद तक सही है जहाँ कि यह "एब्सर्ड" न हो जाए. बिम्ब-प्रतीक लघुकथा की सुन्दरता तो हैं लेकिन सादगी और स्पष्टता भी उतनी ही लाजमी है.
जनाब महेन्द्र कुमार जी आदाब,इस बार आपकी लघुकथा वो रंग नहीं जमा सकी जिसकी हम आपसे उम्मीद करते हैं,बहरहाल इस प्रस्तुति और आयोजन में सहभागिता के लिए आपका धन्यवाद ।
कथा कई बार पढ़ी पर समझ ना पाई ,बहुत सारे पात्रों का होना,कुछ कथनों का अनावश्यक होना ।आप बहुत अच्छा लिखते है जानती हूँ ।बधाई प्रेषित है आद० महेंद्र कुमार जी ।
आदरणीय महेंद्र जी,लघुकथा के लिए बधाई।हाँ,तर्क-कुतर्क में काली लिबास वाले औरत को विवस्त्र करते हैं,न्यायाधिपति नहीं।गौर तलब है।
सब कुछ इतना स्याह भी नहीं है देश मे आदरणीय महेन्द्र जी। कथा उलझ गई है ।
जनाब महेन्द्र कुमार साहिब ,लघुकथा की लम्बाई अधिक होने से कुछ उलझ सी गई ,विषय अच्छा है ,मुबारक बाद क़ुबूल फरमायें।
समझने की कोशिश, मगर अभी नहीं, कल्पना मेरी सोच के नजदीक नहीं आ रही
भारत ! !
सभाकक्ष में श्रोताओं की उपस्थिति बता रही थी कि कथावाचक असाधारण ज्ञानी हैं। भारत के राम भक्तों के बीच यह अटूट विश्वास है कि जहाॅं कहीं भी रामकथा होती है वहाॅं हनुमानजी अवश्य ही पीछे की पंक्ति में कहीं बैठे कथा सुन रहे होते हैं । अशोक वाटिका का प्रसंग आने पर कथावाचक बोले,
‘‘ वाटिका में अशोक बृक्ष के नीचे सफेद साड़ी पहने हुए सीतामाता बैठी हैं, चारों ओर सफेद फूल खिले हैं, रावण अपनी हॅुकार भरते उन्हें धमका रहा है ... ’’
आगे वे कुछ कह पाते कि पीछे से एक सज्जन ने खड़े होकर विनम्रता पूर्वक कहा,
‘‘ नहीं पंडितजी ! सीतामाता सफेद नहीं , लाल साड़ी पहने हुए थीं और चारों ओर लाल ही फूल खिले थे।’’
‘‘ महानुभाव ! आप कौन हैं? ’’ मुस्कराते हुए कथावाचक ने पूछा।
‘‘ मैं ? अरे ! मैं हनुमान । मैंने ही सीतामाता की खोज, अशोक वाटिका में की थी’’
‘हनुमान’ नाम सुनकर सभी श्रोता उत्सुकता और आश्चर्य से पीछे की ओर देखने लगे।
कथावाचक ने मोर्चा सम्हाला ,
‘‘ ओ हो ! हनुमानजी , प्रणाम। लेकिन बताइए कि यह द्रश्य देखकर आपको क्रोध नहीं आया था?’’
‘‘ बिलकुल आया था, वो तो श्रीराम प्रभु की आज्ञा नहीं थी अन्यथा मैं वहीं पर रावण के सिर के टुकड़े टुकड़े कर देता।’’
‘‘ हाॅं ! ये बात थी न ! इसी क्रोध से आपके नेत्र लाल हो गए थे और सभी चीजें लाल लाल दिखाई देने लगीं थीं, समझे, बैठो ! अब आगे की कथा सुनो। ’’
हनुमानजी ने कुछ बोलना चाहा लेकिन श्रोताओं की ओर से जोरदार ध्वनि हो उठी,
‘‘ वाह ! वाह! अद्वितीय व्याख्या वाह !! वाह !! ’’
और, जिस मच्छर का रूप धरकर उन्होंने लंकापुरी में प्रवेश किया था वही कान के पास भन्भनाया,
‘‘ हनुमानजी ! देखा ! प्रत्यक्ष द्रष्टा को भी गलत सिद्ध कर दिया न ? यह राम का ‘भारत’ नहीं , कलियुगीन रावण का है! यहाॅं सीताओं का तो रोज अपहरण होता है पर उनकी खोज करने और अपहरणकर्ताओं को दंड देने वाला राम कहीं दिखाई नहीं देता!! ‘‘
मौलिक व अप्रकाशित
एक प्रचलित किस्से को आधार बनाकर फँतासी शैली में लिखी इस गहन संदेशयुक्त लघुकथा के लिए आपको हार्दिक बधाई आदरणीय सुकुल जी । / ‘‘ हनुमानजी ! देखा ! प्रत्यक्ष द्रष्टा को भी गलत सिद्ध कर दिया न ? यह राम का ‘भारत’ नहीं , कलियुगीन रावण का है! यहाॅं सीताओं का तो रोज अपहरण होता है पर उनकी खोज करने और अपहरणकर्ताओं को दंड देने वाला राम कहीं दिखाई नहीं देता!! ‘‘/ इन पंक्ितयों के माध्यम से वर्तमान (अ)न्याय प्रणाली पर जर्बदस्त तंज कसा गया है। सादर शुभकामनाऍं स्वीकार करें । सादर
आदरणीय रवि प्रभाकर जी , कथा पर अपने समीक्षात्मक विचार रखते हुए उत्साहित करने के लिए विनम्र आभार।
तीक्ष्ण व्यंग्य सहित सुन्दर सृजन ।
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