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प्लेटफॉर्म पर एक चबूतरे के पास बैठने वाला भिखारी..... दरअसल यही उसकी असली पहचान थी जिसे उसकी ‘बाबानुमा’ सूरत भी छिपाने में नाकाम थी।
सुबह-सुबह झाड़ू लगाती लक्ष्मी को भरी-पूरी नज़रों से ताड़ते हुए बोला-“ए लछमी, तू इस काम को थोड़े ही बनी है।”
“ई तो किस्मत है बाबा।” कहकर लक्ष्मी चुप रह गई। वैसे लक्ष्मी को ऐसी नज़रों की खूब पहचान थी। मगर रोज की तरह उसकी इस आदत को टालते हुए, चुपचाप अपना काम करती रही।
भिखारी अपने मैले से कम्बल में, बाहर के तपते बदन की गर्मी को भीतर महसूस करता हुआ और कड़ाके की ठण्ड को मात देता हुआ, अपना पाव-भाजी का पैकेट संभाले बैठा रहा, जो देर रात की ट्रेन के किसी रहमदिल यात्री से उसने पाया था।
लक्ष्मी झाड़-पोछ कर प्लेटफॉर्म चमका रही थी और भिखारी अपनी आँखे। बाबानुमा मुंह से टपक रही लार, कम-से-कम, उस पाव-भाजी के कारण नहीं है; ये लक्ष्मी के गदराये बदन की चुभती सिहरन, बखूबी पहचान चुकी थी।
अचानक भिखारी ने कम्बल कांधे से गिराया और टॉयलेट चला गया।
लक्ष्मी सफाई करते-करते चबूतरे तक पहुँच गई और सफाई के पहले उसने पाँव-भाजी का पैकेट उठाकर चबूतरे पर रखा ही था कि भिखारी की जोरदार चीख उसके कानों में पड़ी- "हे भगवान! इसने मेरा धरम भरस्ट कर दिया।"
अचानक एक और पहचान उभर आई थी- भिखारी की भी और लक्ष्मी की भी। जलजला बरपाती एक और ट्रेन, स्टेशन पर बिना रुके, कान फाड़ती हुई निकल चुकी थी।
(मौलिक व अप्रकाशित)
अंतिम वाक्य कमाल का है, भाई जी !! बढ़िया लघुकथा
आदरणीय Chandresh Kumar Chhatlani जी लघुकथा के प्रयास पर सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए आभार.
आदरणीया कांता जी लघुकथा के प्रयास पर सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए आभार.
इस सुन्दर लघु कथा पर हार्दिक बधाई आ. मिथिलेश भाई ! सादर
"अचानक एक और पहचान उभर आई थी- भिखारी की भी और लक्ष्मी की भी। जलजला बरपाती एक और ट्रेन, स्टेशन पर बिना रुके, कान फाड़ती हुई निकल चुकी थी। " बहुत खूब !
आदरणीय हरिप्रकाश भाई जी लघुकथा के प्रयास पर सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए आभार.
अच्छी लघुकथा हुई है आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी । अंगूर खट्टे हैं वाली कहावत चरितार्थ करती हुई पंक्तियाँ // "हे भगवान! इसने मेरा धरम भरस्ट कर दिया// बढ़िया बन पड़ी है । बधाई इस रचना के लिए..
आदरणीय vinaya kumar singh जी लघुकथा के प्रयास पर सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए आभार.
//भिखारी की जोरदार चीख उसके कानों में पड़ी- "हे भगवान! इसने मेरा धरम भरस्ट कर दिया।" //
इस पंक्ति ने भीतर तक हिला कर रख दिया. प्रस्तुति यहीं अपने उद्येश्य में सफल हो जाती है. समाज की दोगली पहचान सिर चढ़ कर चीखने लगती है. अंदर से कुछ और और बाहर से कुछ और.. ! दोनों तरह की सोच से ये समाज चलता रहा है. यही समाज इसका गवाह है, कि दिन के उजाले में बरती जाने वाली छुआछूत की घृणा रात के या मन के अँधेरे में एक शुरु से अमान्य रही है.
प्रस्तुत लघुकथा थोड़ी कसावट अवश्य माँग रही है, लेकिन कथानक और विन्यास के तौर पर संप्रेष्य है.
समाज के घृणित किन्तु अपरिहार्य ढंग को सामने लाती इस लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय मिथिलेशभाई.
आदरणीय सौरभ सर,
आपको लघुकथा पसंद आई जानकार आश्वस्त हुआ. लघुकथा के प्रयास पर सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए आभार.
//प्रस्तुत लघुकथा थोड़ी कसावट अवश्य माँग रही है// आपके कथन अनुसार कथा में कटौती करते हुए संशोधित रचना निवेदित है-
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प्लेटफॉर्म पर एक चबूतरे के पास बैठने वाला भिखारी..बाबा.. ही उसकी असली पहचान थी।
सुबह-सुबह झाड़ू लगाती लक्ष्मी को भरी-पूरी नज़रों से ताड़ते हुए बोला-“ए लछमी, तू इस काम को थोड़े ही बनी है।”
“ई तो किस्मत है बाबा।” कहकर लक्ष्मी चुप रह गई। वैसे लक्ष्मी को ऐसी नज़रों की खूब पहचान थी। मगर रोज की तरह उसकी इस आदत को टालते हुए, चुपचाप अपना काम करती रही।
भिखारी अपने मैले से कम्बल में, बाहर के तपते बदन की गर्मी को भीतर महसूस करता हुआ और कड़ाके की ठण्ड को मात देता हुआ, अपना पाव-भाजी का पैकेट संभाले बैठा रहा, जो देर रात की ट्रेन के किसी रहमदिल यात्री से उसने पाया था।
लक्ष्मी झाड़-पोछ कर प्लेटफॉर्म चमका रही थी और भिखारी अपनी आँखे। बाबानुमा मुंह से टपक रही लार, कम-से-कम, उस पाव-भाजी के कारण नहीं है; ये लक्ष्मी के गदराये बदन की चुभती सिहरन, बखूबी पहचान चुकी थी।
अचानक भिखारी ने कम्बल कांधे से गिराया और टॉयलेट चला गया।
लक्ष्मी सफाई करते-करते चबूतरे तक पहुँच गई और सफाई के पहले उसने पाँव-भाजी का पैकेट उठाकर चबूतरे पर रखा ही था कि भिखारी की जोरदार चीख उसके कानों में पड़ी- "हे भगवान! इसने मेरा धरम भरस्ट कर दिया।"
अचानक एक और पहचान उभर आई थी- भिखारी की भी और लक्ष्मी की भी।
जलजला बरपाती एक और ट्रेन, स्टेशन पर बिना रुके, कान फाड़ती हुई निकल चुकी थी।
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वैसे इसे अगर पूर्णतः कॉम्पेक्ट कर दे तो ये यूं बनेगी जिसमे न कथा विस्तार होगा न वातावरण -
प्लेटफॉर्म पर झाड़ू लगाती लक्ष्मी को भरी-पूरी नज़रों से ताड़ते हुए भिखारी बोला-“ए लछमी, तू इस काम को थोड़े ही बनी है।”
“ई तो किस्मत है बाबा।” कहकर टालते हुए, चुपचाप अपना काम करती रही। वैसे लक्ष्मी को ऐसी नज़रों की खूब पहचान थी।
अचानक भिखारी ने किसी से भीख में मिला खाने के पैकेट कम्बल के पास रखा और टॉयलेट चला गया।
लक्ष्मी ने सफाई के क्रम में खाने का पैकेट उठाया ही था कि भिखारी चीख सुनी- "हे भगवान! इसने धरम भरस्ट कर दिया।"
दोनों की नई पहचान उभर आई.
ये अभ्यास के क्रम में करते हुए आपसे मार्गदर्शन चाहता हूँ. वैसे दूसरा वर्सन मुझे नहीं लग रहा कि आपको कतई पसंद आया होगा. बस कार्यशाला है तो बात रखी
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