For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

“ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी”  अंक-41 में शामिल सभी लघुकथाएँ

(1). आ० अजय गुप्ता जी
तपस्या
.
लैब कंपाउंड में रिपोर्ट का इंतज़ार करते आनंद और तपस्या. लैब अटेंडेंट ने केबिन से बाहर आ कर आवाज़ दी, “रिपोर्ट ले लो. उद्भव सन ऑफ़ आनंद एंड तपस्या.” आक्रोशित सा दिख रहा आनंद उछलता हुआ सा उस तक पहुंचा और लगभग झपटते हुए उसके हाथ से रिपोर्ट ली. तपस्या को साथ लेकर कंपाउंड से बाहर एक खाली जगह में जाकर उसकी नज़रों ने तेज़ी से रिपोर्ट को स्कैन करना शुरू कर दिया. “डी.एन.ए. मैच रिपोर्ट फॉर उद्भव (8) एंड आनंद (34)”. उसके नीचे रिपोर्ट की डिटेल्स थी और लिखा था “डी.एन.ए. मैच्ड, पैटरनिटी कनफर्म्ड”.
आनंद के चेहरे के भाव इतनी तेज़ी से बदले जितनी तेज़ी से गिरगिट रंग बदलता है. आँखों में चमक उभर आई. एकदम से तपस्या की और देखते हुए बोला, “ओ तपस्या, देखो. सब ग़लतफ़हमियाँ दूर हो गई. उद्भव मेरा ही खून है. मैं ही उसका पिता हूँ. ओह तपस्या, मैं कितना खुश हूँ, ब्यान नहीं कर सकता.”
तपस्या का हाथ पकड़ कर बोलता ही चला गया, “अब मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं. पहले भी नहीं थी. पर मैं क्या करता. लोग क्या-क्या बोलते थे तुम्हारे और तुम्हारे कलीग अरुण के बारे में. उसपर उद्भव की शक्ल भी कहाँ मिलती हैं मुझ से. कोई भी होता तो यही करता. खैर अब सब पहले सा हो जाएगा. तुमने मेरा विश्वास फिर पा लिया है.”
तपस्या ने अरुण की ओर देखा. उस की आँखें भर आई. याद आ गया पिछले डेढ़ साल का सारा घटनाक्रम. सब पहले सा कैसे हो सकता है!! उसके चेहरे पर एक फीकी मुस्कान आई. आनंद की और देखते हुए कहने लगी,
“आनंद, पति-पत्नी का सम्बन्ध विश्वास का होता है और पिता-पुत्र का आस्था का. आज तुमने दोनों को सिद्ध तो किया किन्तु हमेशा के लिए खो दिया है. मैं जा रही हूँ. डिवोर्स पेपर तुम तक पहुँच जायेंगें.”
और आनंद से हाथ छुड़ा पर वो दृढ़ क़दमों से सामने की सड़क पर बढ़ गई.
------------------
(2). आ० मोहम्मद आरिफ़ जी  
विश्वास
.
" ये क्या है बच्चों ?" शकूर चाचा ने बड़े आश्चर्य से बच्चों के 
हाथ से लिफाफें लेते हुए कहा ।
" कुछ नहीं , थोड़ी-सी मदद है ।" बच्चों का लीडर सौम्य मुस्कुराकर बोला ।
" मगर क्यों ?" शकूर चाचा अभी भी आश्चर्य में थे ।
" पिछले दिनों हमारे मोहल्ले में कुछ शरारती तत्वों ने दंगा करवा दिया जिसमें आपका घर भी चपेट में आ गया था । फिर दंगाइयों ने देवशरण जी के घर में लूटपाट की थी । हम मोहल्ले के सभी बच्चों ने दंगा पीड़ितों की मदद करने की ठानी और 'रिलीफ फॉर रिओट विक्टिम बाय चिल्ड्रन ' युनियन बनाई । सभी ने मिलकर चंदा इकट्ठा किया । समाज के सभी वर्गों से चंदा माँगा । सभी ने बढ़चढ़कर चंदा दिया । अब हम देवशरण जी को लिफाफा देने जा रहे हैं ।" 
" मगर जाते-जाते यह तो बताते जाओ बेटा कि तुम यह सब किसलिए कर रहे हो ?" शकूर चाचा ने ऐनक नाक के ऊपर सरकाते हुए कहा ।
" कुछ नहीं चाचा , हम चाहते हैं कि सभी धर्मों के लोगों के बीच विश्वास बना रहे । हमारी आस्था को कोई डिगा न सकें ।" सौम्य कहते हुए आगे बढ़ गया ।
---------------------
(3). आ० महेंद्र कुमार जी 
पास्कल का दांव 

"आओ पास्कल आओ, मुझे तुम्हारा ही इन्तज़ार था।" भगवान ने पास्कल को देखते ही कहा।
अब से पहले, उस वक़्त जब पास्कल ज़िन्दा था। "ईश्वर को तर्कबुद्धि द्वारा नहीं जाना जा सकता।" पास्कल ने गहरी सांस लेते हुए कहा।
"अब?" पास्कल असमंजस में था। "जब ईश्वर का ज्ञान नहीं हो सकता तो उसे मानने की क्या आवश्यकता है?" वह नास्तिकता की तरफ़ बढ़ ही रहा था कि तभी उसे ख़्याल आया। "ज़रूरी तो नहीं कि जिस चीज़ को न जाना जा सके उसका अस्तित्त्व भी न हो?"
अँधेरी रात में आसमान तारों से जगमगा रहा था। पास्कल ने ऊपर की तरफ़ देखा और कहा, "क्या हो यदि ईश्वर का अस्तित्त्व हुआ तो?" वह दो राहे पर खड़ा था। "मैं नास्तिक बनूँ या आस्तिक?"
काफी देर तक सोचने के बाद उसने कहा, "चाहे मैं नास्तिक बनूँ या आस्तिक दोनों ही सूरतों में दो ही स्थितियाँ सम्भव हैं : या तो ईश्वर होगा या फिर नहीं होगा।" उसे दो में से एक पर दांव लगाना ही था।
उसने पहली स्थिति का मूल्यांकन किया। "यदि ईश्वर न हो तो नास्तिक बनना फ़ायदेमन्द होगा और आस्तिक बनना नुकसानदायक।" और फिर दूसरी स्थिति का। "यदि ईश्वर हो तो आस्तिक बनना फ़ायदेमन्द होगा और नास्तिक बनना नुकसानदायक। पर किसमें ज़्यादा नुकसान होगा?" शतरंज के मंझे हुए खिलाड़ी की तरह पास्कल हर सम्भावना पर विचार कर रहा था।
"ईश्वर के न होने से कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ेगा पर यदि वह हुआ तो मुझे लम्बा नुकसान उठाना पड़ सकता है क्योंकि उसकी सत्ता को ठुकराने के लिए वो मुझे नर्क़ में भेज देगा। इसलिए नास्तिक बनना ज़्यादा नुकसानदायक है।" इस तरह पास्कल ने लाभ के आधार पर अपना दांव चल दिया।
भगवान के सामने खड़े पास्कल को अपनी बुद्धि पर गर्व हो रहा था। वह जानता था कि उसका दांव चल गया है।
मगर तभी। "नर्क़ में ले जा कर इसका वो हाल करो कि इसकी रूह कांप उठे।" भगवान ने उन यमदूतों की तरफ़ इशारा करते हुए कहा जो पास्कल को पकड़ कर ले आये थे।
पास्कल चौंक गया। "ये क्या भगवन्? मैंने तो आजीवन आपकी सेवा की है। मुझे तो स्वर्ग मिलना चाहिए?"
"तुम्हें क्या लगा था, मैं तुम्हारी चालाकी पकड़ नहीं पाऊँगा?" भगवान ने पास्कल की तरफ़ घूर कर देखा और कहा। "लोग दुनिया को धोखा देते हैं और तुमने मुझे धोखा देने की कोशिश की?"
यमदूत उसे घसीटते हुए ले जा रहे थे और वो ज़ोर-ज़ोर से चीख़ रहा था। "ये गलत है। मेरे साथ धोखा हुआ है।"
----------------
(4). आ० तस्दीक अहमद खान जी 
अंध विश्वास

आज़ाद सिंह रोज़ की तरह सवेरे सवेरे बीवी के साथ वरानडे में पड़ी कुर्सियों पर बैठते ही बहू को आवाज़ देने लगे, "बहू चाय ले आना"l
बहू फौरन दो कप चाय देकर अंदर चली गई l
चाय की चुस्की लेते हुए पत्नी आज़ाद सिंह से कहने लगीं," तीन साल हो गए बहू घर का चराग नहीं दे पा रही है, सोचती हूँ अगले महीने बाबा हरीराम के आश्रम में सत्संग है, आप कहें तो बहू को उनके पास लेजा कर आशीर्वाद दिलवा लाऊँ l
आज़ाद सिंह बीच में ही बोल पड़े," नहीं, नहीं, आज कल के बाबाओं का कोई भरोसा नहीं, आए दिन बलात्कार के केस में बाबा पकड़े जा रहे हैं, बाबा हरीराम पर भी शिष्या के साथ बलात्कार की इन्क्वायरी चल रही है "l
पत्नी ने फ़िर आस लगाते हुए कहा," पड़ोस में मोहन की बहू के औलाद उनके आशीर्वाद से ही हुई है "l
आज़ाद फ़िर दिलासा देते हुए बोले," यह सब तुम्हारा वहम है, सिर्फ़ भगवान पर भरोसा रखो, बहू का तो इलाज चल ही रहा है "l
आज़ाद सिंह पत्नी को समझा रहे थे कि इतने में बाहर से अख़बार वाले ने वरानडे में अख़बार फेंक दिया l आज़ाद सिंह ने जैसे ही पढ़ने के लिए अख़बार उठाया, पहले पन्ने पर छपी ख़बर देख कर चकित हो गए और फ़ौरन पत्नी से बोले," बाबा हरीराम को पुलिस ने शिष्या के साथ बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार कर लिया?" l
-------------------
(5). आ० कनक हरलालका जी 
समर्पयामि
.
बाढ़ राहत दल के स्वयं सेवक एक छत पर फंसे परिवार को निकालते वक्त किसी भी तरह ७७ वर्षीय माताजी को चलने के लिए राजी न कर पा रहे थे ।
" अरे बचवा ,तुम समझत काहे नहीं हो। हम छोटे से रहे जब बियाह कर आये थे । ये रजुवा छोट सा रहा जब वो हमको छोड़ कर चले गए थे । पर हम एकहो दिन उनको छोड़ कर नहीं रहे। रोज भिनसारे उनके फोटो को परनाम कर हमार दिन सुरू होत है ,अउर उनके पांव छू कर सुतल रहत हैं । वो तो अचानक से पानी घुस आया और हम सब छत पर आ गइले। धड़धड़ा के पानी आया रहा सो संदूक खोल नहीं सके ।अब हम ई बाढ़ में उनको अकेले छोड़ कर कबहूँ ना जाई ....!! "
--------------
(6). आ० डॉ टी आर सुकुल जी 
त्रिकूट कालसर्प दोष 


सड़क के किनारे बोरा बिछाकर अपनी भुट्टे की दुकान लगाए बुड्ढा भुट्टे भून रहा था और उसका आठ दस साल का फटेहाल नाती हाथ में पंखा लिए हवा कर रहा था कि इतने में एक आलीशान कार आकर उसके सामने रुकी। 
‘‘भुट्टे कैसे दिये?‘‘
‘‘तीन रुपये का एक।‘‘
‘‘अरे लूटो मत, सही रेट लगाओ।‘‘
पंखा छोड़, हाथ से भुट्टा छीलकर दाने दिखाते हुए नाती बोला,
‘‘ देखिए ! एकदम नरम और ताजे हैं बाबू, ठेले पर तो ये पाँच रुपये के मिलते हैं।‘‘
कार में बैठी महिला ने भुट्टे की जाॅंच करते हुए खरीद लेने का इशारा किया,
‘‘ अरे ! अन्धेर न करो, दो रुपये का लगाओ, सब ले लूँगा।‘‘
‘‘चार महीने खेत में प्राण दिये हैं तब हुये हैं बाबू ! तीन का रेट वाजिब है। सब ले लें तो दो-चार रुपए कम दे दीजियेगा।‘‘ बुड्ढे ने दीनता से कहा।
‘‘बुड्ढा बड़ा बदमाश है, चलो यहाँ से।‘‘ कहते हुए कार वाले ने काँच ऊपर करने हाथ उठाया ही था कि एक मोटा तगड़ा, त्रिपुण्ड चन्दन मालाधारी आदमी आया और कार में बैठे बच्चे के सिर पर हाथ रखते हुए बोला,
‘‘अहोम, अहोम, अहोम, किड़किड किड़किड़ कलकराटधू, कलकराटधू! जय बाबा भूरमशाह धूनीवाले की ! बच्चा बड़ा भाग्यशाली है ’’
और, उसके पूरे माथे पर अजीब टाइप की काली सिन्दूरी सी राख मलते हुए कुछ बुदबुदाने लगा, बच्चे की माॅ ने हाथजोड़ लिये।
‘‘शान्ति कराओ, बच्चे के सिर पर षडकाल त्रिकूटकाल सर्पदोष की छाया है। मुष्यकूट पर्वतवाली माॅ काली के मन्दिर जा रहा हूॅं, ग्यारह सौ दीपदान बच्चे के नाम से करूँगा। अहोम, अहोम, अहोम!‘‘
माॅं ने पर्स से ग्यारह सौ रुपए उसे दे दिये, वह फौरन चलता बना। भुट्टे वाला बच्चा दौड़कर थोड़ी दूर पीछे पीछे गया और कुछ पैसे लेकर वापस लौट आया। यह देखकर कार वाले व्यक्ति ने बच्चे को बुलाकर पूछा,
‘‘बाबा से पैसे किस बात के ले आये?‘‘
‘‘ये ! ये, तो हमारे गाॅंव का झगड़ू अहीर है। सबेरे दद्दा से गाॅंजा पीने के लिये पाॅंच रुपये उधार ले गया था और मेरे दो भुट्टे खा गया, बोला था कि कमाई होने दो, चुका दूँगा। वही लेने गया था। भुट्टा दूॅं साहब?‘‘
सुनते ही, गाड़ी इतनी तेजी से बाबा की ओर बढ़ी जैसे उड़ान भरनेवाली हो, पर वह अदृश्य ! ! !
----------------------
(7). आ० विनय कुमार जी 
आस्था
-
जल्दी जल्दी कदम बढ़ाते हुए वह घर की तरफ जा रही थी और अपने आप को कोस भी रही थी. घर से निकलते समय उसे याद ही नहीं रहा कि आज सोमवार है और रास्ते पर इतने कांवरिया मिल जाएंगे. जिधर देखती, उधर ही कंधे पर काँवर लटकाये कहीं अकेले तो कहीं झुण्ड में लोग चले जा रहे थे. कुछ लोग तो बाकायदा डी जे की धुन पर नाचते गाते हुए भी चले जा रहे थे. बस एक ही चीज सब जगह कॉमन थी, वह थी सिर्फ लड़के या पुरुष ही थे इस यात्रा में.
पिछले दस मिनट में उसे कई जगह फब्ती सुननी पड़ी थी, कहीं कहीं तो इन लोगों ने उसे धक्का देने और रगड़ने का प्रयास भी किया था. एकाध जगह उसने विरोध करने की कोशिश की तो बाकी कांवरिये भी जुटने लगे. फिर उसे लगा कि शायद स्थिति बदतर ही हो जायेगी तो आगे बढ़ गयी. इतने में उसकी नजर सड़क के किनारे खड़ी एक गाय पर पड़ी जिसको गुजरने वाला हर कांवरिया बड़े प्यार से सहलाता और कुछ तो उसे देखकर "गऊ माता की जय" की जैकारा भी लगा रहे थे. 
उसने एक नजर गाय पर डाली और फिर उसको प्यार से सहलाते कांवरियों पर. उसको गाय की किस्मत पर रश्क़ होने लगा और वह भाग कर अपने घर वाली गली में घुस गयी. 
-----------------
(8). आ० प्रतिभा पांडे जी 
नुमाइश 
.
अपने यार क़ुरेशी के साथ  बाउजी  बैठक में  जमे हुए थे ।  नितिन को समझ नहीं आ रहा था कि उन्हें अन्दर कैसे बुलवाया जाय। चाय के तीन दौर हो चुके थे फिर भी दोनों की बातें ख़त्म नहीं हो रही थीं।  हार कर नितिन बैठक में आ गया। 
" बाऊजी मुझे  वो .वो..एक जनेऊ चाहिए। आपके पास तो  स्पेयर रहती हैं एक दो। " नितिन थूक गटकता बोला।"
" तू तो पहनता  नहीं है। फिर किस के लिए चाहिए ?  " बाऊजी नितिन के चेहरे को पढ़ने की कोशिश करने लगे । 
" मैं  ही पहनूँगा।  वो क्या है हमारी पार्टी के एक दो नेता मंदिर जाने वाले हैं आज।  तो अगर वहाँ  मुझे भी शर्ट उतारनी पड़ी  तो..तो अच्छा इम्प्रेशन पड़ेगा।  आप समझ रहे हैं ना। " बाऊजी से आँखें मिलाये बिना बोल रहा था नितिन। 
"  इम्प्रेशन के लिए तो कोई भी तीन चार धागे लेकर डाल  ले बेटा।  काम हो जाने के बाद उतार कर फेंक देना। " बाऊजी का स्वर  आहत था। 
" आज जरूरत है तो थोड़ी देर के लिए पहन रहा हूँ , इसमें क्या गलत है बाऊजी ?" नितिन को अच्छा नहीं लग रहा था सफाई देना।
" गलत तो हम हैं  बेटा जो आज के  इन नुमाइशी दाँव  पेंचों को समझ नहीं  पा रहे हैं । " अपने दोस्त के कंधे पर हाथ रखते हुए कुरैशी जी बोले।
" ठीक कह रहा है तू।" बाऊजी अब सहज  थे। " तू भी दो तीन टोपियाँ तैयार रखना यार। क्या पता कब इसे जरूरत पड़ जाय।" 
--------------------
(9). आ० तेजवीर सिंह जी 
काठ की हाँडी
.
सुबह सुबह छतरपुर के ग्राम प्रधान तोताराम जी  अपनी बैठक में अपने सहयोगियों के साथ बैठे ताज़ा राजनैतिक माहौल पर चर्चा कर रहे थे कि तभी कोमल सिंह जी इलाके के कुछ गणमान्य लोगों के साथ पधारे।
"ओहो भाई जी, हमारे तो भाग जाग गये। आज तो बड़े बड़े  नेता लोग पधारे हैं। बैठो भाई, चाय पानी का जुगाड़ करता हूँ"।
"अजी चौधरी साब, तक़लीफ़ मत करो,चाय पानी की कोई दरकार नहीं है।
"जैसी आपकी मर्जी।कोई खास मक़सद"?
"बात तो खास ही है। आपको तो पता ही होगा कि अपने लीलाधर जी को इस बार हमारी "देश भक्त पार्टी" ने सांसद के लिये टिकट दिया है"।
"सुना तो था"।तोताराम जी मरी सी आवाज में बोले|
"क्या बात है, चौधरी जी, कुछ ठंडे से बोल रहे हो"?
"देखो भाई, असली बात तो ये है कि माहौल आपकी पार्टी के खिलाफ़ है। लोगों की आस्था खत्म हो गयी”|
"कैसी बात कर रहे हो चौधरी जी? अखबार, रेडियो, टी वी, सब पर तो हमारी पार्टी छायी हुई है"।
"ये सब तो आपके ज़र खरीद गुलाम हैं। आपके ही गीत गायेंगे"।
"आम जनता तो इन्हीं पर यक़ीन करती है"।
"किसी जमाने में करती थी। अब नहीं। पिछले चुनाव में आपने इसी मीडिया के भरोसे लोगों को उल्लू बनाकर चुनाव जीत लिया था। पर इस बार वह चाल कामयाब नहीं होगी"।
"चौधरी जी, ऐसा नहीं है। कितने काम हुए हैं। आप तो देख ही रहे हो"।
“जी बिल्कुल, देख भी रहा हूँ, और सुन भी रहा हूं| सब झूठे प्रचार हैं”।
"यह बात तो सच नहीं है चौधरी जी"
"पिछले चुनाव के दौरान आपकी पार्टी ने जो वादे किये थे, एक भी पूरा नहीं किया।आपका नेता एक राष्ट्रीय स्तर का नेता होकर भी एक ट्रेड  यूनियन लीडर की भाषा बोलता है| कोरी गप्पें हाँकता है। तुम्हारी पार्टी की साख सबसे ज्यादा तो इसकी वज़ह से बिगड़ी है।"।
"अरे भाईजी, यही तो हमारा स्टार प्रचारक है। इसकी बदौलत तो हमें सत्ता मिली है"।
"देखो भाई, साँची बात तो ये है कि अब इस पार्टी से मेरा भी विश्वास उठ गया। मुझे तो माफ कर दो जी"।
"आपसे तो बड़ी उम्मीद है चौधरी साब।निराश मत करो| बस इस बार और मदद कर दो”।
"भाई जी, काठ की हाँडी  चूल्हे पर केवल एक ही बार चढ़ सकती है"।
-------------------
(10). आ० बबिता गुप्ता जी 
सार्थक हुई दुआ 
.
मैं टैक्सी से निकल ,भाई, कपिल के हॉस्पीटल में ससुराल जाते समय मिलने गई. फिर जल्दी आने का वायदा कर मैं बाहर आ गई.अंदर बाहर मरीजों के साथ-साथ लोगो के आने -जाने वालों की भीड़ लगी हुई थी.पार्किंग में सायकल से लेकर चार पहिये की तो करीब आठ-दस गाड़ियां खड़ी थी.
अनायास ही गाड़ियां देख पुराना दृश्य आँखों के सामने तैर गया.जब पापा ने हम सभी बच्चों की परवरिश में अपना सब कुछ लगा दिया था.एक दिन पापा को निराश देख, हम सबके शुभाक्षी बावा समझाने लगे - 'तुम चिंता क्यों करते हो? आस से आसमान होता हैं .'
रूँधे गले से पापा बोले- 'मैं हार गया,पता नहीं ,बच्चों के भाग्य में क्या लिखा हैं?'
ढांढस बंधाते हुए बावा ऊँचे स्वर में कहने लगे- 'देखना,तुम्हारा सपना जरूर पूरा होगा.तुम्हारे द्वार पर चार पहिया खड़े होंगे.'
मैं और भाई भी वही खड़े थे.बावा का ऐसा कहते  सुन सोचने लगी,क्या वास्तव में ऐसा होगा?लेकिन मन में कही बड़ों की कही हुई बातों में विश्वास था कि दिल से दी दुआए कभी खाली नहीं जाती.
तभी पीछे से कपिल की आवाज ने मुझे चौका दिया,कह रहा था- 'आप गई नहीं. किस  दुनिया में खो गई आप?
कुछ नहीं,बस बावा की कही बाते याद हो आई थी,मैंने कहा.
'कुछ नहीं भूला हूँ,सब बावा के ही आशीर्वाद से हूँ.'
'विश्वास तो था,पर आज पूरा विश्वास हो गया कि बड़े ही हमारे भगवान के रूप .......'
----------------
(11). आ० वीरेंद्र वीर मेहता 
आस्था की संपूर्णता 

पुलिस जिसकी तलाश में आई थी वह नहीं मिला, लिहाजा जरूरी कार्यवाही के बाद पुलिस वापस लौट गयी। आश्रम के बाहर भक्तों में शिकायत करने वाले के प्रति आक्रोश तो था लेकिन 'कलीन चिट' मिलने की संतुष्टि भी थी। अंदर,आश्रम के निजि कक्ष में आचार्य के सामने वह अपराधी बना खड़ा था। "ये तुमने अच्छा नहीं किया कृष्णा।"
"मैं जानता हूँ आचार्य कि मैंने आपसे बात किए बिना पुलिस को खबर करके सही नहीं किया लेकिन....." उसकी नजरें आचार्य की ओर प्रश्नमुद्रा में उठी हुयी थी। ".......क्या ये सच नहीं कि आपने उस हत्यारे को यहां आश्रय दिया। हां, यह बात अलग है कि पुलिस कार्यवाही में वह नहीं मिला।"
"ये सही है कृष्णा कि हमने उसे यहां आश्रय दिया। वह घायल था और मानव धर्म के नाते उसकी मदद करना हमारा कर्तव्य था।"
"अर्थात आपने न केवल एक हत्यारे के लिये झूठ बोल कर कानूनन अपराध किया, बल्कि बाहर उपस्थित श्रदालुओं की आस्था से भी खेला।" कृष्णा के चेहरे पर व्यंग्य भरी मुस्कान थी।"
"नहीं ऐसा नहीं है, हमने केवल सच को छुपाया।" आचार्य सहज ही गंभीर हो गए। "आस्था एक पवित्र जल की तरह होती है कृष्णा, यदि इसमें विषरूपी अविश्वास की एक बूंद भी पड़ जाए तो वह संपूर्ण जल को नष्ट कर देती है। बस, यही हम नहीं चाहते थे क्यूंकि इस आश्रम से न केवल अनगिनित लोगों का विश्वास बल्कि मेरे पूर्ववर्ती गुरुओं की आस्था भी जुड़ी हुयी है।"
"लेकिन आपने उस अपराधी को बचाकर मेरा बरसों का जो विश्वास भंग किया है, उसका क्या आचार्य....?"
"कृष्णा! मेरे प्रति तुम्हारी सम्पूर्ण आस्था तो शायद पहले भी नहीं थी वरना एक बार तुम मुझसे वास्तविक स्थिति अवश्य जान लेना चाहते।" आचार्य के मुख पर एक अर्थमिश्रित मुस्कान आ गयी। "बरहाल जिस अपराधी की तुम बात कर रहे हो पुत्र; कभी वह मिले तो उससे आस्था के मायने अवश्य पूछना, क्यूंकि फिलहाल तो वह पुलिस के यहां पहुँचने से पहले ही जा चुका है और अब तक तो वह स्वेच्छा से आत्मसमर्पण भी कर चुका होगा।"
--------------------
(12). आ० आशीष श्रीवास्तव
आस्था से भीगा मन
.
‘‘मुझे भी क्या सूझी। आधी रात को बारिश में पुरानी स्कूटर लिये निकल पड़ा। प्रेस में ही रूक जाता। क्या पता था, बीच रास्ते में गाड़ी खराब हो जाएगी। अब तो दूर-दूर तक कोई नहीं।’’ बिगड़ी गाड़ी को धकाते हुए रवि पैदल ही चला जा रहा था बुदबुदाते हुए।
‘‘अब तो न प्रेस लौट सकते हैं न ही गाड़ी कहीं खड़ी करके घर जा सकते हैं।’’ आसमान की ओर देखते हुए- ‘‘चलो अच्छा है कम से कम पसीना नहीं बहाना पड़ रहा।’’
‘‘मॉ जाग रही होगी।’’
‘‘मॉ तो कहती है- भला करो तो भला होता है। मैंने किसी का क्या बिगाड़ा, जो....?? सबकी मदद ही की.....आज मुझे जरूरत है तो कोई नहीं...!’’ सुनसान सड़क पर रवि आगे बढ़ता जा रहा है....
एकाएक जोर की आवाज आई : ‘‘क्या हुआ?’’ गरजते बादल और चमकती बिजली के बीच देखा तो पीछे घर्रर घर्रर करती स्कूटर पर एक लड़का। ‘‘भाई, गाड़ी खराब हो गई।’’ रवि का कहना हुआ कि वह लड़का बोला-‘‘चलो बैठो मैं पीछे से धकाता हूं।’’
‘‘भाई थैंक्यू बहुत-बहुत।’’ तपाक से गाड़ी पर बैठते हुए रवि विनम्रता से बोला।
लड़के ने पीछे से पैर लगाया और स्कूटर आगे-आगे चलने लगी। ‘‘कहां तक जाओगे?’’
रवि : ‘‘भाई, दो चौराहे छोड़कर डिपो चौराहे तक। पर आप जहां तक भी मदद कर दें, मेहरबानी होगी।’’
अनजान लड़का : ‘‘मुझे भी वहीं जाना है। बस गड्ढों से बचाकर चलना।’’
‘‘जी भाई! अच्छा हुआ जो आप मिल गए।’’ मन-ही-मन बड़बड़ा रहे रवि के मनोभाव बदल गए थे।
‘‘लो आ गया डिपो चौराहा !’’
रवि आभार जताते हुए उस युवक को रूपये देने लगा- ‘‘भाई बहुत अहसान आपका। ये रख लीजिए। आपने मेरी मदद की मैं कभी नहीं भूल सकता।’’
भीगते हुए युवक ने जेब पर हाथ रख लिया। ‘‘नहीं भाई! मेरी भी कभी किसी ने मदद की थी। अम्मी कहती है-नेकी करोगे तो नेकियां मिलेंगी.....।’’
मेघों की गर्जना और चमकती बिजली के बीच रवि आश्चर्य में पड़ गया। शरीर के रोंगटे खड़े हो गए। युवक को जाता देखने के बाद रवि स्कूटर संभालते हुए घर की ओर बढ़ने लगा। खुद से ही बात करते हुए।
‘‘कह रहा था वहीं तक जाना है फिर गाड़ी मोड़कर वापस चल दिया। कमाल है! जैसा मेरी मॉ कहती है, वैसा ही उसकी मॉ भी कहती है। भला करोगे तो भला होगा।’’
अजीब इत्तेफाक है !! घर, अलग, दर अलग, भाषा अलग, क्षेत्र अलग फिर भी जीवन मूल्यों के प्रति आस्था एक जैसी....!!
घटना से रोमांचित रवि ने एक बार फिर पलटकर देखा-दूर तक सड़क पर सन्नाटा पसरा हुआ...कड़कती बिजली में सिर्फ सड़क पर रह-रह कर पानी चमक रहा है। सिर से पांव तक तो रवि बारिश में कई बार भींगा पर आज उसका मन भी भीतर तक भीग गया....। बोला : शुक्र है घर आ गया ! यही आस्था तो मानवता को बचाये हुए है।
----------------------
(13). आ० बरखा शुक्ला जी 
इंसानियत 
.

लीना से सब्ज़ी का ठेला लगाने वाले रामदीन ने कहा “बीबीजी डॉ. साहब कहाँ है ,हम आप लोगों के लिए मिठाई लाए थे ।”
“वो तो कुछ काम से बहार गए है , ये मिठाई किस ख़ुशी में लाए हो ।”लीना ने पूछा ।
“बीबीजी मेरे दोनो बच्चे आप लोगों के आशीर्वाद से अच्छे नम्बर से पास हो गए है ।”रामदीन ने ख़ुश होकर बताया ।
“ये तो बड़ी ख़ुशी की बात है , पर मिठाई बच्चों के लिए ले ज़ायो ।”लीना ने कहा ।
“हाँ बीबीजी ,उनके लिए भी ले जा रहे हैं ,और आपसे तो कुछ भी नहीं छुपा है ,डॉ.साहब ने ही मेरी शराब की लत छुड़ा कर ये सब्ज़ी का ठेला लगवाया ,और बच्चों की स्कूल की फ़ीस भी वो ही भर रहे है ।”रामदीन बोला ।
“दूसरों की मदद करने में उन्हें बहुत ख़ुशी मिलती है ।”लीना बोली ।
“इसी से हम भगवान से भी ज़्यादा उन्हें मानते है ।”रामदीन ने कहा ।
“नहीं रामदीन भगवान की जगह तो कोई नहीं ले सकता ,पर हाँ उनकी आस्था इंसानियत में ही है।”लीना बोली ।
-------------------
(14). आ० मुज़फ्फर इकबाल सिद्दिक़ी
विश्वास 

आज तो इफ्तार के समय विनिता भी फरीद बेगम के दस्तरख्वान के लिए बहुत सारे पकवान बना कर ले आई थी। 
"दीदी, आप तो इफ्तार के पहले की दुआ मांगिये मैं भजिये तल देती हूँ, गरमा - गरम।"
"नहीं विनीता, थोड़ा सा ही तो काम बाकी रह गया है मैं ही निपटा लेती हूँ।" लेकिन वह नहीं मानी।
अब तो वह रोज़ ही अफ़्तार के पहले आ जाती और फरीदा बेगम जैसे ही रोज़ा अफ्तार के पहले अन्य दुआओं के साथ जब कहती, "या अल्लाह बे औलाद को औलाद अता फरमा।" तो वह भी सिर से अदब से पल्लू ले लेती और आमीन कहती। उसके कानों को ये शब्द बड़ा सुकून देते और दिल ही दिल में एक उम्मीद सी जाग जाती। उसे तो पूर्ण विश्वास था कि "अल्लाह दिन भर से भूखे प्यासे लोगों की दुआ ज़रूर पूरी करेगा।" उसे  दुनियाँ- जहांन की दुआओं से कोई मतलब नहीं था। न ही उसे स्वर्ग - नर्क से कोई लेना देना था। उसे तो बस एक ही बात सालती थी कि "ऊपरवाले ने उसे इस दुनियां की रचना का सूत्रधार बना कर भेजा है। लेकिन वह शादी के सात साल बाद भी इस अधिकार से वंचित हूँ।"
वैसे तो विनीता वर्मा, फरीदा बेगम के किरायेदारों में से थी। फरीदा बेगम इफ्तार के समय बिल्डिंग के अन्य किराये दारों को भी अपने दस्तरख्वान पर बुला लेतीं और फिर दुआ मांगती थीं। यही रमज़ान माह में रोज़ का क्रम था। वक़्त गुज़रता गया दवा और दुआ काम कर गई।
वर्मा जी, फरीदा बेगम और सभी परिचित आपरेशन थिएटर के बाहर प्रतीक्षा में थे। तभी डॉक्टर नयना ने बाहर आकर खुशखबरी सुनाई ।
बधाई हो वर्मा जी, "विनीता ने एक सुन्दर सी बच्ची को जन्म दिया है। जच्चा-बच्चा दोनों स्वास्थ्य हैं।"
-----------------------
(15). आ० शेख़ शहज़ाद उस्मानी 
भोलापन या बड़बोलापन

"मेरा विकास और सशक्तिकरण देख कर तुम बड़बोलेपन पर उतर आए हो आक़ाओं के हाथों मालामाल होकर!"
"तुम क्यों जल रहे हो? अवसरवादिता के साथ हम अपना पेशा यूं ही करते आये हैं और विकसित होते रहे हैं अपने सशक्तिकरण के साथ! जनता हम पर और हम जनता पर आस्था रखते हैं; तुम में दम हो, तो अपने घटक-दलों की 'खोई हुई जवानी' और 'खोई हुई ताक़त' अपने समूह में झोंक कर देख लो इस बार के आम चुनावों में!" लोकतंत्र के नवीन 'राजनीतिक-दल-महागठबंधन' के कटाक्ष पर वहां के 'मीडिया' ने बड़ी ढीटता से कह ही डाला - "हमारी विज्ञापन शैली, समाचारों और 'बहस-चर्चाओं' से मुक़ाबले में तुम्हें एक और चुनौती है इस बार!"
"उन रणनीतियों पर तुम्हारा विश्वास इस बार तुम्हें पिछली बार की तरह जीत नहीं, करारी शिकस्त देने वाला है गुरु! ..स्वीकार है तुम्हारा चैलेंज!" महागठबंधन ने अतिआत्मविश्वास के सुर अपनी भड़ास में मिलाते हुए कहा - "तुम्हारा ग़ुरूर तो ढह जायेगा, जब तुम्हारे झूठ, तुम्हारी लोकतंत्र-घातक रणनीतियों, छद्म-योजनाओं और धनसंचयन के घोटालों का हम मिलजुलकर पर्दाफाश करेंगे!"
"तुम बड़े दूध के धुले हो न! 'घोटालों की महामारियों 'और 'अनुभवी स्वच्छ छवि वाले क़द्दावर नेताओं के सूखे' से पीड़ित तुम्हारे घटक दल अब मृतप्राय हैं! हमसे कितनी ऑक्सीजन दिलवाओगे! हमारी भी सीमाएं हैं सत्ता के प्रभाव और दबाव में!" मीडिया ने कुछ पुरानी फाइलें, न्यूज़-कवरेज़ और रिपोर्ताज़ के हवाले पेश करते हुए महागठबंधन से इतराकर कहा।
'जनता' भौंचक्की सी सब देख-सुन रही थी। लोकतंत्र और संविधान में , धर्म और विधि-विधान में उसका विश्वास डावांडोल हो रहा था, किंतु ग़ायब नहीं!
"हम न तो अंधे हैं और न ही तुम दोनों के 'अंधे धंधों' में शामिल हूं!" 'जनता' ने अपने अनुभव आधारित पीड़ाओं को मुखरित स्वर में बयां करते हुए कहा - "हां, शोषित, दिग्भर्मित ज़रूर हूँ! ...तुम किसी मज़हब की दुखती रग़ पर हाथ रख हमारे भावात्मक शोषण की कितनी भी कोशिश कर लो या हमारी आस्थाओं पर कुठाराघात करते रहो; हम अपने मुल्क और इसकी असली तहज़ीब के साथ तुम्हारी तरह कभी दग़ा नहीं करेंगे! भटक सकते हैं, प्रलोभनों में अटक सकते हैं ...लेकिन लोकतांत्रिक आस्थाओं और ज़िम्मेदारियों से सटक नहीं सकते! जन-जागरूकता में देर है, अंधेर नहीं! तुम दोनों हमसे हो, हम तुमसे नहीं!"
-------------------------
(16). आ० अर्चना त्रिपाठी जी 
विश्वास की विवशता 

बस रात के अंधेरे को चीरती हुई गन्तव्य की ओर अग्रसर थी।तभी किसी चीज से टकराने के कारण बस रोकी ही गयी थी कि " खोलो- खोलो " का शोर बढ़ गया।दरवाजा खुलते ही भीड़ ने ड्राइवर को मारते मारते बस से नीचे फेंक दिया।उसपर होती लाठी-डंडो की बरसात देख , उसी बस में सफर कर रही रेवा चीख पड़ी , 
" मर जाएगा वो " तथा सहायता के लिए 100 नम्बर पर फ़ोन किया । घण्टों तक फ़ोन पर ही पूछताछ होती रही।
" कहाँ हुआ ? कैसे हुआ ? कोई हताहत तो नही हुआ ?" वह इन प्रश्नों के बार - बार जवाब देते हुए वह पस्त हो गई। 
फिर पुलिस कहने लगी , " किसी जिम्मेदार नागरिक या पुरुष से बात कराओ।आप हमें गलत सूचना दे रही हो।" जिम्मेदार नागरिक कोई भी पुलिस से बात करने को तैयार नही हुआ। अंततः सदैव परोपकार करने का विश्वास रखने वाली रेवा खीझ उठी,
" देखिए बस का ड्राइवर लापता हैं।इसके बावजूद आपको लगता हैं मैंने गलत सूचना दी हैं तो मुझे क्षमा कीजिये।अब मुझे परेशान ना किया जाय ।वैसे अबतक मैं स्वयं को जिम्मेदार नागरिक ही मानती थी।" अब तक पेट्रोलिंग पुलिस पहुंच चुकी थी और वह पुनः एकबार बयान देने को विवश थी
----------------------
(17). आ० डॉ विजय शंकर जी 
आस्था
.
मैं परिक्रमा के लिए निकलने को तैय्यार बैठा माता जी के साथ चाय पी रहा था कि रवि आ गया। मुझे तैय्यार देखते बोला,
“तुम मान नहीं रहे हो, जाओगे जरूर?’’
मैं सिर्फ मुस्करा दिया। 
वह नहीं माना , बोला, “मेरी समझ में नहीं आता , इतनी लम्बी परिक्रमा कर के तुम कौन सा अपना या किसी और का भला कर लोगे? 
अच्छी भली छुट्टी थी , दो दिन आराम करते , मौज रहती , पर तुम तो तुम हो , जाओगे जरूर , पता नहीं क्या मिल जाएगा।’’ 
मैं न चाहते हुए कह बैठा , “ कुछ मिल जाएगा , कह नहीं सकता , पर अपनी सहनशीलता बढ़ जाएगी , एक आत्म-विश्वास बढ़ जाएगा कि मैं इतना पैदल चल सकता हूँ , बस , काफी है ’’
“वो तो ट्रेड मिल पर रोज चलते हो , मिलता नहीं ? ’’ रवि का प्रश्न सटीक था। 
मैंने एक ठंडी सांस ली और मुस्करा कर पूछा , “ अपनी सोसायटी के वॉचमैन को देखते हो , रात भर जाग के पहरा देता है , सड़कों पर सिपाहियों को देखते हो , दिन -रात , धूप में, अँधेरे में चलते-फिरते रहते हैं, कभी देश के सैनिकों के बारे में सोचा है , वे कैसी-कैसी ठण्ड और गर्मी में रात- दिन पहरा देते हैं , हम तो सिर्फ छोटी सी एक परिक्रमा करके स्वयं में एक विशवास जगाते हैं कि ईश्वर हमारी सामर्थ्य को बनाये रखे , हमें सहन-शीलता दे , हम किसी भी कठिन परिस्थिति में विचलित न हों , हम यह कह सकें , हाँ , यह मैं कर सकता हूँ क्योंकि मैंने बीस कोस की परिक्रमा की है। बस , इतना ही मिल जाए , बहुत है।’’
रवि को मेरी भाषण सी बातें कुछ अच्छी नहीं लगीं , बोला , “ तुम्हारी इन बातों पर मैं विश्वास नहीं करता ? ’’
इस बार मैंने उसे अधिक बोलने ही नहीं दिया और तुरंत कह उठा ,“ ये प्रश्न मेरी अपनी आस्था का है , तुम विश्वास करो , न करो। मेरी आस्था बदल नहीं जाएगी। ’’
वह एक पल को बिलकुल शांत हो गया , मैंने मुस्करा के कहा , “ हमारे विश्वास रोज बनते बिगड़ते हैं , पर हमारी अस्थायें अडिग होती हैं।विश्वास प्रायःहम दूसरोँ पर करतें हैं पर हमारी आस्थाएं हमारे अंतर-विश्वास और अवधारणाओं पर अवलम्बित होती हैं।”
इस बार वह कुछ नहीं बोला। मैंने ही कहा , “मेरी बात पर ध्यान देना , कभी मन होगा तो तुम भी चलना , अच्छा लगेगा।” 
वह चलने को खड़ा हुआ , बोला , “ कहीं छोड़ दूँ तुम्हें , कार से?”
मैंने अपना छोटा सा झोला उठाया , माँ के पैर छुए और उसकी पीठ पर हाथ रख कर कहा , “ बस मेरी परिक्रमा तो यहीं से पैदल शुरू।”
---------------------
(18). आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी 
स्वास्थ्य
.
जब डॉक्टर ने हाथ खड़े कर दिए तो पुत्र ने कहा, '' डॉक्टर साहब ! कुछ भी कीजिए. कहीं से भी डॉक्टर बुलाइए. मगर, मेरी मां को ठीक होनी चाहिए.''
'' यह बात आप कई बार कह चुके हैं. हम भी कई डॉक्टर बुला चुके है. यह आप जानते हैं.मगर,''
'' मगर क्या डॉक्टर साहब ?''
'' आप एक बार आप की मां की बात मान लीजिए. हो सकता है...''
'' नहीं डॉक्टर साहब ! आप भी जानते हैं, इस से वह ठीक होने वाली नहीं है. आजकल साइंस के पास हर बीमारी का इलाज है.''
'' मगर, यह बात आप की मां नहीं जानती है'' डॉक्टर साहब ने कहा, '' उन्हें मुझे पे विश्वास नहीं है. इसलिए वह ठीक नहीं होगी ?'' डॉक्टर साहब ने अंतिम जवाब दे दिया.
तब पुत्र कुछ सोचते हुए बोला, '' ऐसा करने से उन की तबीयत और बिगड़ जाएगी तो ?''
'' नहीं बिगड़ेगी. वहां आप का विश्वास का चमत्कार देखने को मिलेगा.''
'' आप भी अंधविश्वासी है डॉक्टर साहब. आप को साइंस पर भरोसा नहीं है. इसलिए आप भी चमत्कार की बातें कर रहे हैं.''
'' नहीं भाई मैं चमत्कार की नहीं आस्था की बातें कर रहा हूं. एक बार आप वहां ले जा कर देखिए. उन की आस्था और मेरी दवा— दोनों मिल कर क्या चमत्कार करते है. फिर देखिएगा.'' यह सुनते ही निर्जीव पड़ी मां के चेहरे पर चमक आ गई और उन्होने डॉक्टर साहब की ओर देख कर बड़ी मुश्किल से हाथ जोड़ लिए.
---------------------
(19). आ० सीमा सिंह जी 
आस्था के चक्रव्यूह
.
"आहा! देशी घी की खुशबू! तुम लोग हलवा खा रहे हो!" हॉस्टल के कमरे में घुसते ही श्रद्धा की नाक से शुद्ध घी के हलवे की महक जा टकराई, ललचाई नज़रों से सखियों के हाथ ताड़ती श्रद्धा को देख सभी लड़कियाँ हँस पड़ी।
"असली बामन है मीठे की महक कोसों दूर से सूंघ लेती है।" एक ने कहा और बाकी सब ठहाका मार कर हँस पड़ीं।
"पता भी है ब्राह्मण कुल में जन्मते ही मीठा खाना नैतिक दायित्व हो जाता है।" श्रद्धा ने खिलखिलाते हुए कहा और हलवे पर टूट पड़ी।
"गुरुद्वारे से आया है तेरा धर्म भ्रष्ट तो नहीं हो जाएगा?" उसका हाथ मुंह तक पहुंचने से पहले ही कलाई से पकड़ कर यशलीन शरारत से मुस्कुराई। तभी देर से हलवा खाने में जुटी हुई तब्बसुम ने श्रद्धा का हाथ छुड़ाया और गम्भीर स्वर में बोली,
"खाने का कोई मजहब नही होता है। खाने का एक ही मजहब है वो है भूख और जुबान की तसल्ली।"
ठहाकों के बीच पूरा हलवा लगभग चट हो चुका था। घेरा बनाकर बैठी लड़कियों में से ही एक ने जूँठें दौने पैर मार कर परे कर दिए।
जिसे देख यशलीन की आँखों में गुस्से की लकीर डोल गई।
'पैर क्यों लगा रही है यार उसमें प्रशाद था।"
"था! अब तो नहीं है।"
"कुछ दाने तो होंगे न! पैर लगाने का क्या मतलब?" यशलीन के कर्कश स्वर से मस्ती के बादल छटने लग गए।
लड़कियाँ उठकर अपने अपने कमरों की ओर बढ़ने लगी।
"वैसे तो बहुत बड़े दिल वाली बनती है ज़रा सा पैर लगाने से कितना भड़क गई।"
"है तो आखिर सरदारनी ही न!" मुंह बना कर एक ने मन की बात बोल ही दी।
"हम लोग तो ऐसे कट्टर नहीं हैं होस्टल दूसरा घर है हमारा।" कहते हुए तब्बसुम ने अपने गले में लटकते स्टॉल से सिर ढका और अपने कमरे की ओर जाने लगी।
"अरे आ जाओ मेरे कमरे में बैठ जाओ तुम लोग भी।"
साथ वाली लड़की ने अपने कमरें के सामने उनको रोकते हुए कहा।
"नहीं नहीं, अज़ान हो गई है अब, बाद में मिलते हैं।"
साथ ही खड़ी शमा का हाथ पकड़ते हुए लपक कर अपने कमरे की ओर बढ़ गईं।
-----------------
(20). योगराज प्रभाकर
दोराहे के मोड़ पर 
.
"यही होता है जिहाद? 
"हुँह जिहाद! धंधा है धंधा!"
"नमाज़ के वक़्त सफ़ एक और खाने के वक़्त अलग-अलग?"   
"पता है क्या बोल रहा था वो सूडानी ख़बीस? कह रहा था की सब-कॉन्टिनेंट के मुसलमान तो दोयम दर्जे के हैं।"    
"तभी तो जानबूझकर हमारी ड्यूटी लगा दी पखाने साफ करने की।"   
"ऐसे भी गलीज़ काम करने पड़ेंगे, तौबा तौबा! कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था।"  
"पढाई लिखाई छुड़वाकर हमे ऐसे घिनौने काम में लगा दिया।"  
"और आप ये ख़ुद? बड़े कमांडर के बच्चे कनाडा में पढ़ रहे हैं और छोटे वाले के इंग्लैंड में।" 
"हम लोगों को मुदद्तें हो गईं अपनों से बिछड़े हुए, पर ये लोग अपने परिवार वालों से जब चाहें सैटेलाइट फोन पर बातें करते हैं।"     
"इइनके परिवार तो ऐश कर रहे हैं, और हमारे घरवाले ग़ुरबत और दहशत में जीने के लिए मजबूर हैं। बहुत मन खराब होता है, मैं तो किसी दिन ख़ुदकुशी कर लूँगा" 

"मेरे भी दिल में कई बार ख़ुदकुशी करने का ख्याल आता है। लेकिन मैं इतना बुज़दिल नहीं हूँ।" 
"मगर ये ज़ालिम न तो जीने देंगे और न ही आसानी से मरने ही देंगे! तो ऐसे में क्या करोगे?" 
"मैं तो सोच रहा हूँ कि यहाँ से वापिस घर भाग जाऊँ।" 
"पागल हो गए हो क्या? इसका अंजाम जानते हो? उधर पहुँचते ही मिलिट्री वाले धर दबोचेंगे तुम्हें। पता है न वो क्या हश्र करते हैं?"
"मगर ये भी सच है कि वो लोग हमारे कमांडरों की तरह क़साई नहीं हैं। सुना है लौट के जाने वालों को मुआफी भी मिल रही है आजकल। इसलिए मैं तो कहता हूँ कि तुम भी चलो।"
"अगर सरहद पार करते ही उन्होंने गोली मार दी तो?"    
"तो कम-से-कम इतनी तसल्ली तो रहेगी कि अपने वतन में जाकर मरे हैं।"
--------------------
(21). आ० मनन कुमार सिंह जी 
आस्था
..
सरकार गिर गई। निवर्तमान प्रधानमंत्री महामहिम को अपना इस्तीफा सौंपने की घोषणा कर सदन से बाहर आये। निकास-द्वार पर उनके एक पुराने मित्र मिल गए।निवर्तमान प्रधानमंत्री छूटते ही बोले,
'अरे भई! अगर आपने एक वोट दे दिया होता,तो मेरी सरकार नहीं जाती।'
मित्र मुस्कुराये,ठमके और आगे बढ़ गए। निवर्तमान जी जैसे पार्श्व में चले गए। सदन में बहस का जबाब देते हुए उन्होंने कहा था, "गर मैं गलत हूँ, तो मेरी पार्टी कैसे गलत होगी या गर पार्टी गलत है, तो मैं कैसे सही हो सकता हूँ?'
इस पर सदन में उनके मित्र संसद मुस्कुराये थे। शायद उन्होंने इसे अपनी उस बात का जबाब माना था कि-आप गलत दिशा में जा रहे हैं,गुरूजी। निवर्तमान जी को वे(मित्र) प्रायः गुरूजी कहा करते थे। निवर्तमान जी सोचने लगे कि यह शायद मत की बात नहीं है,आस्था का है; अपनी-अपनी आस्था का। और वे भी आगे बढ़ गए।
-----------------------
(22). आ०  नयना(आरती)कानिटकर जी 
सहवास

दो हफ़्ते से ज्यादा हो गये हैं  उन्हें आय.सी.यू. में भर्ति हुए. बुढापा, डयबिटिज, ब्लडप्रेशर सबने एक साथ जोर मार दिया हैं.वेंटिलेटर सारे शरीर में नलियाँ ही नलियाँ .दस मिनट बैठने देती है सिस्टर.  मैं  भी तो बुढा गई हूँ . थक जाती हूँ काम  करते-करते , पचास साल का साथ हैं उनका अकेले कैसे छोड दू. आज  बेटा-बेटी भी आ गये है सहारे के लिए. उनकी भी भाग-दौड चल रही हैं, ये एक्सपर्ट वो एकस्पर्ट. अकेलेपन की कल्पना से मैं भी भयभित हो जाती हूँ कभी-कभी. कई दिन से ठीक से खा नहीं पा रही. वे भी ये  जानते हैं मैं उनके बगैर कभी अकेले कुछ नहीं खाती. हमेशा नाराज होते रहते
" राधा! तुम सुनती क्यों नहीं हो मेरा काम ही ऐसा हैं देर-सबेर हो ही जाती हैं तुम वक्त पर खा लिया करो.  वर्ना बाद में बिमारीया  घेर लेंगी तुम्हें." पर मैं जानती थी मैंने खा लिया तो वे खुद के साथ बेपरवाह हो जाएँगे......" फिर साथ ही खाना हमारे जीवन का हिस्सा बन गया था.
मैं अपने विचारों में मग्न . बेटा-बेटी और डा. साहब कब आकर मेरे समीप खडे हो गये. पता ही नहीं चला. वे तीनों अंग्रेजी में आपस में कुछ बातें कर रहे थे पर मेरा ध्यान नहीं था. बस अब वेंटिलेटर हटा देते हैं जैसे शब्द जरुर मेरे कानों तक पहूँच गये थें . 
" माताजी ! अब आप घर जाईए पिछले कई दिनों से आप यहाँ है. बच्चें हैं अब यहाँ पर. आप थोडा आराम किजिए और लौकी का सूप बनाकर भेजिए पेशेंट के लिए." डा. साहब कहते हुए बाहर निकल गये
" चलो माँ ! चलते हैं.....भैया है यहाँ पर." शिनू मेरा हाथ पकडकर उठाते हुए बोली.
मैं अनमने मन से उठकर चल दी पर मेरा मन वहीं छूट गया. घर आकर नहाया, खाना खाया थोडा और सूप बनाकर बेटी से जिद करने लगी अब चलो भी फिर से अस्पताल तुम्हारे पापा इतने सालो में कभी... दो घंटा गुजर गया हैं हमें घर आए.
" मम्मा! आप थोडा आराम कर लेती तो... मैं ड्रायवर के साथ सूप....." शिनू ने कहा
" तो तु रहने दे. तू आराम कर. मैं अपने से निकल जाऊँगी." मैनें उससे कहा और बाहर निकलने लगी तभी
" मम्मा! मम्मा! रुको तो. भैया का फोन....." मगर मैं कहा सुनने वाली . 
"तुमने मुझे जबरन खिला दिया.पापा वहा भूखे बैठे हैं"  थर्मस उठाकर मैं बाहर निकलने को हुई
गेट पर पडौसी शर्मा जी और... को देखते ही धडकन बढ गई. 
"शिनू! शिनू! मैं ना कहती थी वो मेरे बिना ....नहीं---नहीं ...." 
शानू-शिनू ने मेरी दोनो बाहें थाम रखी थी.
-----------------------

(इस बार कोई भी रचना निरस्त नहीं की गईI यदि भूलवश कोई रचना शामिल होने  रह गई हो तो अविलम्ब सूचित करें)

Views: 4348

Reply to This

Replies to This Discussion

तत्परता से संकलन तैयार करने के लिए आपको प्रणाम।

हार्दिक आभार भाई अजय गुप्ता जी।  

कथानकों और कथ्यों की विविधता युक्त लघुकथाओं से गुथी गोष्ठी-माला संयोजन हेतु हार्दिक बधाई और आभार आदरणीय मंच संचालक महोदय श्री योगराज प्रभाकर साहिब। मेरी रचना (15) को स्थान देने के लिए आपको और मेरी रचना पर समय देकर टिपप्णियों और इस्लाह से नवाज़ने के लिए सभी पाठकों व रचनाकारों को तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया।

  मैं केवल एक रचना पटल पर नहीं पहुंच सका था : मुहतरम जनाब ओमप्रकाश क्षत्रीय 'प्रकाश' साहिब की रचना (18): 'स्वास्थ्य' बहुत ही अनुपम व गंभीर विचारोत्तेजक कथानक पर सम्पन्न हुई है। मरीज़ का चिकित्सक व उसके दल के प्रति समर्पित/सपोर्टिव होने के लिए उसकी उनके प्रति विश्वास/आस्था होना बहुत ज़रूरी है अभीष्ट ईष्ट-देव में आस्था के साथ ही। कहते हैं कि आस्था से ही आधा इलाज़ स्वत: हो जाता है मनोवैज्ञानिकता व आध्यात्मिकता के सुर-ताल के माधुर्य और प्राकृतिक चिकित्सा से! इससे चिकित्सक व उनके दल का की दायित्व व कर्म के प्रति आस्था और आत्मविश्वास में भी अद्भुत इजाफा होता है। बहुत अच्छा कथ्य उभारती लघुकथा के लिए जनाब ओमप्रकाश जी को हार्दिक बधाइयाँ और आभार। सादर।

मैं अपनी रचना में और जो कुछ कहना चाहता था उसके लिए और अधिक शब्दों की आवश्यकता थी कुछ सम्पादन के बाद भी। जानना चाहता हूँ की इसे रोचक, चुटीली व अधिक तंजदार बनाने के लिए क्या इसे  लगभग 500-550 शब्दों में लघुकथा रूप में कह सकते हैं?

इस रचना को और धारदार व संवादों को चुस्त-चुटीले बनाने हेतु इनमे काँट-छांट की दरकार है भाई उसमानी जी न कि विस्तार की। 

शुक्रिया। कोशिश करूंगा। आदरणीय सर जी।

हमेशा की तरह, आयोजन की सभी २२ लघुकथाओं को तत्परता से संकलित करके मंच पर रखने और इस आयोजन के प्रति समर्पित आदरणीय योगराज प्रभाकर सहित ओ बी ओ टीम और सभी २२ रचनाकारों को हार्दिक बधाई.... मेरी रचना को स्थान देने के लिए आद: योगराज सर और रचना पर आये सभी मित्रों को हार्दिक धन्यवाद. निसंदेह 'आस्था' विषय पर अलग-अलग भाव की लघुकथाओं का ये संकलन अपने आप में अनूठा होगा. सादर.. 

जनाब योगराज प्रभाकर साहिब आदाब,सफ़ल संचालन,त्वरित संकलन के लिये हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

गोष्ठी के सफल आयोजन के लिए आदरणीय योगराज सर जी को बधाई ,मेरी रचना को स्थान देने के लिए धन्यवाद ,सादर 

आयोजन के कुशल संपादन व संयोजन के लिये बधाई आद० योगराज प्रभाकर जी ।हर बार की तरह इस बार भी बेहतरीन कथायें पढने मिली ।सभी सदस्यगण को बधाईयां व शुभकामनायें ।

परीक्षा के बाद तत्काल परिणाम। आस्था जैसे एक विषय के विविध आयामों ने हमारे ज्ञान चक्षुओं को और भी उन्मेषित कर दिया। सम्मानीय ओबीओ परिवार, आदरणीय मंच संचालक और प्रधान संपादक न केवल विषय चयन के लिए बधाई के पात्र हैं बल्कि आयोजन की सफलता और पूरी सक्रियता से कार्यक्रम को गंतव्य तक पहुंचाने के लिए भी बधाई के पात्र हैं। हमें प्रसन्नता हैं कि हमारे द्वारा लिखी गई लघुकथा पर पहले से अधिक प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुईं और सभी की सकारात्मक टिप्पणियों से हम लाभान्वित हुए।
सभी के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करने के साथ ही हम क्षमा भी चाहते हैं कि लाइव आयोजन में पूरा समय नहीं दे पाये। लघुकथा पर देर रात तक प्रतिक्रियाएं आईं हम उन सबके प्रति तहेदिल से धन्यवाद ज्ञापित करते हैं। हम जहां सभी लघुकथाएं एक साथ नहीं पढ़ पाये वहीं ओबीओ परिवार के सहयोगियों ने हमारा मार्गदर्षन किया, हमारा प्रोत्साहन बढ़ाया। हमें सुधार का अवसर दिया। अपने दीर्घ जीवन के अनुभवों से लाभान्वित किया। निष्चित ही इससे हमारा मन हर्षित है।
आदरणीय प्रधान संपादक महोदय जी ने तमाम व्यस्तता के बाद भी हमारी रचना के लिए समय निकाला और मेहनत करते हुए हमें मार्गदर्षित किया। हम उनके प्रति आभार व्यक्त करते हैं। इसके साथ ही आदरणीय नीता केसर जी, श्री महेंद्र कुमार जी, शेख शहजाद उस्मानी जी, मोहम्मद आरिफजी और श्री वीरेन्द्र वीर जी के प्रति भी धन्यवाद और आभार कि उन्होंने बहुमूल्य समय में से कुछ समय निकालकर हमें मार्गदर्षन प्रदान किया। आ. वीरेन्द्र वीर जी ने तो पूरा पैराग्राफ के साथ हमारा मार्गदर्षन किया। उन्हें विषेष धन्यवाद। बाकी सभी के प्रति पहले ही धन्यवाद ज्ञापित किया गया है।
निवेदन है और कामना भी कि इसी प्रकार आपका अपनत्व, स्नेह और शुभकामनाएं व आषीर्वाद जीवन भर मिलता रहे।
आप सबका आभार और धन्यवाद कि आपने मुझे इस लायक समझा मेरा प्रयास रहेगा कि आपके द्वारा बताई, समझाई गईं बातों को ध्यान में रखते हुए और अच्छा लिखने का प्रयत्न जारी रखूं।
अभी तक जो भी लिखा उस पर पता ही नहीं चल पाता था कि कैसा लिख रहे हैं कहां सुधार करना है कहां कमी है, परंतु ओबीओ परिवार ने जो मंच प्रदान किया है उससे हमें न केवल सुधार का अवसर मिल रहा है बल्कि सीखने का भी।
हमें विष्वास है कि ओबीओ परिवार द्वारा प्रारंभ किये गए ये कार्य निरंतर जारी रहेंगे और नवलेखक जुड़कर अपने लेखन में निखार ला सकेंगे।
मेरे लिये तो ओबीओ परिवार एक पाठषाला की तरह है और प्रत्येक प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले मेरे गुरूजन।
हम बहुत खुशी और आदर के साथ आप सब के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते। हमें उम्मीद है कि इसी प्रकार आप सभी का स्नेह, सहयोग, मार्गदर्शन और आशीर्वाद सदैव हमें मिलता रहेगा।
हम एक बार फिर से हार्दिक धन्यवाद देना चाहेंगे उन सभी के प्रति जिन्होंने हमारे ऑनलाइन न रहने बाद भी हमें भविष्य के लिए अपने बेषकीमती सुझाव, सलाह और प्रतिक्रिया से अवगत कराया।
आप सभी के प्रति सादर आभार !!!

गोष्ठी के सफल आयोजन के लिए आदरणीय योगराज सर को बधाई ,मेरी रचना को स्थान देने के लिए धन्यवाद 

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sushil Sarna commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"आदरणीय रामबली जी बहुत ही उत्तम और सार्थक कुंडलिया का सृजन हुआ है ।हार्दिक बधाई सर"
14 hours ago
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
" जी ! सही कहा है आपने. सादर प्रणाम. "
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अशोक भाईजी, एक ही छंद में चित्र उभर कर शाब्दिक हुआ है। शिल्प और भाव का सुंदर संयोजन हुआ है।…"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति स्नेह और मार्गदर्शन के लिए बहुत बहुत…"
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"अवश्य, आदरणीय अशोक भाई साहब।  31 वर्णों की व्यवस्था और पदांत का लघु-गुरू होना मनहरण की…"
yesterday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय भाई लक्षमण धामी जी सादर, आपने रचना संशोधित कर पुनः पोस्ट की है, किन्तु आपने घनाक्षरी की…"
yesterday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"मनहरण घनाक्षरी   नन्हें-नन्हें बच्चों के न हाथों में किताब और, पीठ पर शाला वाले, झोले का न भार…"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति व स्नेहाशीष के लिए आभार। जल्दबाजी में त्रुटिपूर्ण…"
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आयोजन में सारस्वत सहभागिता के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय लक्ष्मण धामी मुसाफिर जी। शीत ऋतु की सुंदर…"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"शीत लहर ही चहुँदिश दिखती, है हुई तपन अतीत यहाँ।यौवन  जैसी  ठिठुरन  लेकर, आन …"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"सादर अभिवादन, आदरणीय।"
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"सभी सदस्यों से रचना-प्रस्तुति की अपेक्षा है.. "
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service