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इन घड़ियों की बुनियाद तो उसी दिन पड़ गयी थी, जब हम गाँव में अम्मा-बाबूजी को छोड़ यहाँ सेटल हो गये थे........
बहुत सही कहा आदरणीय सौरभ सर उम्दा प्रस्तुति ...
आपकी हौस्ला अफ़ज़ाई सदा से राह दिखाती हुई होती है, नादिर भाई. हार्दिक धन्यवाद.
आदरनीय सौरभ जी, ये तो हमारे जैसे बहुत से लोगों का एन समयों का सच्च है, लगुकथा का अंत दिल को छु गया
आदरणीय मोहन बेगोवालजी आपका हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी, 'जैसी करनी वैसी भरनी' वाली कहावत हर किसी ने सुनी होती है लेकिन इसका असर भी होता है यह बहुत बाद में समझ पड़ता है फिर पछताने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं होता है। लघुकथा असरदार बनी है इसके लिए बधाई स्वीकार करें।
आदरणीय विनोद खनगवालजी, आपसे मिला अनुमोदन सुखकर है, आगे देखता हूँ बेहतर हो पाता है क्या. यह अवश्य है कि विधा मेरे जैसों केलिए तनिक दुरूह है.
पगली.. इन घड़ियों की बुनियाद तो उसी दिन पड़ गयी थी, जब हम गाँव में अम्मा-बाबूजी को छोड़ यहाँ सेटल हो गये थे - इन पंक्तियों में सुंदर लघु कथा का चरम आ गया | यही इस लघुकथा को सुंदर भाव दे रहे है आदरणीय
आदरणीय लक्ष्मण प्रसादजी, प्रस्तुति पर दाद देने केलिए आपका हार्दिक आभार.
एक दिन दादाजी को खाना खिलाने वाला बर्तन टूट जाता है , छोटा बच्चा रोने लगता है "मम्मी अब मै बडा होकर पापा को किसमे खाना खिलाऊँगा " आगे की लकड़ी जलकर हमेशा पीछे ही आती है I बधाई आपको इस संवेदनशील रचना के लिए आ० सौरभ पाण्डेय जी
आपको यह प्रस्तुति अच्छी लगी, प्रयासरत होना सकर्मक हुआ. हार्दिक धन्यवाद, आदरणीया प्रतिभाजी.
बुनियाद
“अब इस घर के उत्तराधिकारी को लाओ” बुनियाद से पहले शिलान्यास पूजा में कलावा बाँधने के लिए पंडित जी ने कहा|
दादी ने उचक कर आठ महीने के पोते को बहु की गोदी से लगभग छीनते हुए पंडित जी के सामने कर दिया| पंडित जी मन्त्र पढ़ते हुए बच्चे के हाथ में कलावा बाँध रहे थे इस बात से बेखबर कि दादी के पास बैठी छः वर्षीय चारू के दिल में कोई नई बुनियाद रक्खी जा रही थी|
मौलिक एवं अप्रकाशित
बुनियाद विषय को पूरी तरह सार्थक करती आपकी इस प्रभावोपादक कथा के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय राजेश कुमारी जी । सादर
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