आदरणीय साथिओ,
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महाभारत के पात्रों के माध्यम से बढ़िया समसामयिक लघुकथा कही है आपने आदरणीया प्रतिभा जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
पौराणिक पात्रों के माध्यम से आज का सच बयान करती शानदार लघुकथा के लिए बधाई स्वीकार करें प्रतिभा पाण्डेय जी ।
हार्दिक आभार आदरणीय उस्मानी जी
मुहतरमा प्रतिभा पाण्डेय जी आदाब,अच्छी लघुकथा हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
संजय के बहाने यथार्थ की शानदार प्रस्तुति ।
मुहतरमा प्रतिभा साहिबा, एतिहासिक पात्रों से सजी सुन्दर लघुकथा हुई है मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
अच्छी लघुकथा के लिए बधाई आद. प्रतिभा जी
सारगर्भित बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीया प्रतिभा दी।
लघुकथा
कांटे
......
"सुनो, प्रिया, मेरी बात ध्यान रखना। आज से तुम्हारी और ज्योति के परिवार की दोस्ती खत्म। अब न तो उससे मिलने जाओगी न कोई सम्बन्ध रखोगी ।" "क्यों क्या हो गया?" "जब बिजनेस साथ में शुरू किया तो फैसला दोनों का चलेगा। उसने मुझसे पूछा नहीं। वह अपने को सर्वोपर समझता है तो करे अकेले काम। मुझे उन लोगों से नहीं रखने रिलेशन्श। और तुम भी सुन लो, खबरदार जो एक दूसरे से मिली या बात की। अब से दोनों का मिलना जुलना, घर आना जाना, पार्टी मुलाकात सब खत्म।" "पर वह मेरी बचपन की सहेली है, तुम्हारी उनकी दोस्ती तो अपनी शादी के बाद हुई है। मैं उसे ऐसे कैसे छोड़ दूं।" "मैं नहीं जानता ।वह अपने आप को समझता क्या है। नहीं, अब उनसे कोई संबंध नहीं.... ।बस....।" बचपन से आजतक प्रिया की हर समस्या का हल ज्योति के पास रहता था चाहे माँ की डाँट हो या भाई बहन का झगड़ा, बाग से आम चुराने हों या मैथ्स के सवाल गूगल की तरह हर समय ज्योति मौजूद। आज भी ज्योति ही रास्ता थी। "हलो ज्योति ..मैं... ये कैसे हो सकता है... मुझे बताओ...। आखिरकार दोस्ती हमारी, पहचान हमारी, प्रेम हमारा। ये लोग तो बाद में आए। इनका मनमुटाव हमारा मनमुटाव कैसे बन गया। हमारे पतियों की लड़ाई हमारी लड़ाई कैसे बन सकती है ।अब तू ही बता।" ज्योति के घर भी यही फरमान जारी था और इस बार उसके पास भी कोई समाधान नहीं था। उसने भी हथियार डाल दिए थे।
मौलिक व अप्रकाशित
आदाब। पारिवारिक और व्यावसायिक संबंधों के बीच बचपन के सच्चे रिश्तों की जद्दोजहद और परिलक्षित विसंगति को उभारती बढ़िया रचना। हार्दिक बधाई आदरणीया कनक हरलाल्का साहिबा। शीर्षक भी बढ़िया। कहन और प्रस्तुति बेहतर होने की गुंजाइश लगती है। सादर।
व्यवसाय के रिश्तों में पारिवारिक रिश्तों के कांटे, इस कथ्य पर बनी रचना अच्छी लग रही है, लेकिन इसका सामन्य प्रसतुतिकरण बहुत अधिक प्रभावित नहीं बना सका है, बरहाल बधाई स्वीकारे आदरणीया कनक जी.
//ज्योति के घर भी यही फरमान जारी था और इस बार उसके पास भी कोई समाधान नहीं था। उसने भी हथियार डाल दिए थे।// लघुकथा में यदि इन काँटों का कोई हल दिया गया होता तो यह एक उम्दा रचना होती. क्या औरतों के लिए उनके पति ही सबकुछ हैं? ये लघुकथा यही कहती है. पर लघुकथा यदि यही दर्शाना चाहती है तो इसे और बेहतर तरीके से दर्शाया जा सकता था. चूँकि विषय बढ़िया है इसलिए मैं चाहूँगा कि आप इस पर (लघुकथा कैसे कहनी है) थोड़ा और विचार करें. थोड़े से संपादन से यह निश्चित ही एक उम्दा लघुकथा में परिवर्तित हो जाएगी. बहरहाल मेरी तरफ़ से भी हार्दिक बधाई प्रेषित है. सादर.
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