आदरणीय साथिओ,
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संदेशात्मक बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीय मृणाल सरजी ।
जिन्दगी की उड़ान
“मां,भगवान के लिए अब हमें सीख देना बंद करो। हम बड़े हो चुके हैं”। शारदा बेटे की बात पर हैरान थी। कुछ कहती इससे पहले ही पड़ोसन आशा ने छब्बीस साल के राहुल को टोक दिया।
“मां से ऐसे बात करोगे? तुम दो साल के थे तब से यह अपनी इच्छाओं का गला घोंट कर तुम्हें पाल रही है। आज कमाने लगे तो बातें आ गई।”
राहुल मुंह नीचे कर के बोला “हमने मना नहीं किया था,अब जी लें”,और बाहर को निकल गया।
आशा रोती शारदा को समझाने लगी।
“सारी जवानी इनके नाम लिख दी। कब तक यूं ही सिसकती रहेगी। तू अब आगे बढ़। अपनी ओर ध्यान दे। तेरे भी कुछ सपने होंगे”।
“मैंने सच में कभी अपने लिए कुछ नहीं चाहा । अब ढलती उम्र में क्या सोचूं”।
,” बस तुमने पढ़ा, लिखा दिया। पैरों पर खड़े हो गए। तुझे भी जिंदगी जीने का हक है। जितना इनके पीछे घूमेगी उतना ही तंग करेगें। इन सबसे बाहर भी एक दुनिया है ।"
आशा की बातें शारदा के दिमाग में घूमती रहीं। इन विचारों से घबरा शारदा घर से बाहर जाने को तैयार होने लगी। उसी समय राहुल घर में घुसा।मां को जाने के लिए तैयार देख हैरान था। उसके बिना तो मां कहीं न जाती थी।
“कहां जा रही हो मेरे बिना”?
” मैं जिंदगी जीना सीखना चाहती हूं, बस इसी लिए अकेले ही सही पर आगे बढ़ रही हूँ । एक झटके में शारदा पर्स उठा पेंटिंग क्लास का पता करने बाहर निकल गई ।
अब हैरान होने की बारी राहुल की थी।
मौलिक व अप्रकाशित
उम्दा और सशक्त लघुकथा. बहुत ही अच्छे विषय का चयन किया है आपने आदरणीया रचना जी. इस सन्देशप्रद लघुकथा के लिए दिल से बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब,बहुत उम्दा और कसी हुई लघुकथा लिखी आपने,दिल से बधाई स्वीकार करें ।
कृपया आयोजन में अपनी सक्रियता दिखाएँ ।
बहुत बढ़िया सकारात्मक संदेशवाहक रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया रचना भाटिया जी।
मैडम जी,समाज में ऐसी कहानी आम ही मिलती , पर इस को बहुत ही सुंदर ढंग से कहा गया . बधाई कुबूल करें
प्रेरणात्मक बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीया रचना दी।
अनाम रिश्ता- लघुकथा
भयानक गर्मी लगता था सब कुछ जला डालेगी और ऊपर से लू, दिन में बाहर निकलना लगभग असंभव सा हो गया था. हरी बाबू अपने कमरे में बैठे कूलर की हवा खा रहे थे और बीच बीच में खिड़की के परदे को हटाकर बाहर भी झांक ले रहे थे. पिछले महीने ही रिटायर हुए थे और पहले जहाँ बाबू थे वहां दिन भर लोगों से घिरे रहते थे. इसलिए उनका इस तरह खाली बैठना बेहद कष्टप्रद था, लेकिन कोई उपाय भी नहीं था. बेटे ने सख्त ताकीद कर रखी थी कि दोपहर में बाहर नहीं निकलना है, सुबह शाम चाहे जहाँ भी जाएँ. अब इसके पीछे बेटे की मंशा चाहे जो भी हो लेकिन उनको उसका मना करना अच्छा ही लगता था.
अंदर के कमरे में बहू आराम कर रही थी, अब धीरे धीरे उनकी आदत पड़ गयी थी कि दोपहर में बहू से वह कोई फरमाईश नहीं करें. अव्वल तो वह उठती नहीं थी और अगर उठ भी गयी तो जिस तरह से उनकी फरमाईश किसी न किसी बहाने से टाल देती थी कि उनको समझ में आ गया था. प्यास महसूस हुई तो वह उठे और ख़ामोशी से किचन में जाकर पानी ले आये. पानी टेबल पर रखकर उन्होंने एक बार फिर पर्दा हटाकर बाहर देखा, सड़क पर कर्फ्यू जैसा हाल था. हरी बाबू पर्दा वापस खींचते तभी उनको एक अधेड़ साइकिल से उनके घर की तरफ ही आता दिखाई दिया. उस पूरे इलाके में एक उनके घर के सामने ही मरियल सा गुलमोहर का पेड़ था. गाहे बगाहे कोई धूप का मारा उसके छाँव तले थोड़ा सुस्ताता और फिर आगे बढ़ जाता. छाँव बस इतनी ही होती थी कि कुछ पल के लिए राहत मिले, फिर लू के थपेड़े जता देते थे कि आगे बढ़ना चाहिए.
उस अधेड़ ने साइकिल खड़ी की और अपना गमछा उतार कर उससे चेहरे के बहते पसीने को पोंछने लगा. हरी बाबू की अनुभवी निगाहों ने उसकी भेष भूषा और मूछ दाढ़ी से अंदाजा लगा लिया कि वह एक मुस्लिम है. उनको अचानक याद आया कि रमजान चल रहा है और शायद यह व्यक्ति रोजे से होगा. अपनी नौकरी के दौरान अक्सर वह रमजान के महीने में अपने मुस्लिम साथियों का ध्यान रखते थे और यथासंभव उनके सामने भोजन या जल नहीं ग्रहण करते थे. उस अधेड़ ने गमछे से चेहरा पोंछने के बाद चारो तरफ निगाह दौड़ाई, शायद वह कोई बेहतर जगह तलाश रहा था.
हरी बाबू सोच में पड़ गए, एक तरफ तो उनका मन कहता कि वह उस व्यक्ति को कम से कम एक ग्लास पानी पिला दें. फिर रोजे का ख्याल आता तो मन मना करने लगता. वैसे उनके कुछ साथी रोजा नहीं भी रखते थे इसलिए उनकी इच्छा हुई कि वह आगे बढ़कर उस अधेड़ से पूछ ही लें. उन्होंने दरवाजा खोला, लपट पूरी भयावहता से उनके चेहरे और शरीर के खुले हिस्से से टकराई और वह लड़खड़ा गए. फिर हिम्मत करके वह आगे बढ़े और उस अधेड़ की तरफ मुखातिब हुए "इतनी गर्मी में कहाँ निकल पड़े, लू लग गयी तो लेने के देने पड़ जाएंगे. अगर ऐतराज न हो तो थोड़ा पानी पी लो".
अधेड़ ने उनकी तरफ देखा और पपड़ियाये होठों पर हाथ फेरा "रोजे से हूँ भाईजान, कुछ जरुरी काम से जाना था इसलिए निकल पड़ा. अब इतने दिन निकल गए तो कुछ दिनों के लिए रोजा क्यूँ तोडूं".
हरी बाबू ने उसका चेहरा देखा, दया सी आ गयी उनको. "अच्छा ठीक है पानी मत पीना लेकिन थोड़ी देर आराम कर लो. फिर निकल जाना, अंदर आ जाओ".
अधेड़ ने एक बार फिर उनको देखा, उन्होंने नज़रों से आश्वस्त किया तो अधेड़ उनके पीछे पीछे कमरे में आ गया. कमरे में कूलर की हवा के चलते बहुत राहत थी, उन्होंने अधेड़ को सोफे पर बैठाया और धीरे से पानी का भरा ग्लास उठाकर किचन में ले जाकर रख दिया. ग्लास रखते समय उनको प्यास की पुनः अनुभूति हुई लेकिन उन्होंने पानी नहीं पीना ही उचित समझा.
मौलिक एवम अप्रकाशित
बढ़िया संदेशप्रद लघुकथा है आदरणीय विनय जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
जनाब विनय कुमार जी आदाब,अच्छा पैग़ाम देती हुई लघुकथा लिखी आपने,दिल से बधाई स्वीकार करें ।
कृपया आयोजन में सक्रियता बनाये रखें ।
आदाब। सबसे अलग बेहतरीन कथानक पर बढ़िया संदेशवाहक रचना। हार्दिक बधाई आदरणीय विनय कुमार साहिब।
आदरणीय विनय जी, आप जी की लघुकथा से यहां रमज़ान की अहिमयत बारे जानकारी मिली, साथ ही ये भी संदेश मिला कैसे हम खुद को दूसरे की जगह रख खुद उस की समस्या को जान सकते हैं
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