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प्रदत्त विषय पर सुन्दर गीत हार्दिक बधाई आदरणीय अजय गुप्ता जी
व्यथा , पथिक की !
उस गुमसुम सी,
मुस्कुराहट का आकर्षण।
पल में ले आया,
पलकों में परिवर्तन।
सब ओर देख ,
नतमस्तक धान की बालें,
मन मुदित हो,
बहुभाॅंति करता गान नर्तन।
ज्वार के दाने,
हँस हँस पक्षियों को बुलाते।
मस्त संसार पाकर,
सभी दुख भुलाते।
एक दिन आया जब,
शेष अवशेष पाये,
हाय ! बस, हाय ! कर,
नैन कितना रुलाते।
ओ गेंहूॅॅं की बालो,
अब मुझे न बुलाओ।
तीसी !
तुम नीलसागर से मन न लुभाओ।
तुम भी ऐंसे ही चल दोगी मुझको हॅंसाकर
आॅंसू अभी ही रुके हैं,
तुम फिर न रुलाओ।
मित्र अब है मेरा,
अन्तहीन ये पथ।
आलिंगन करता है यात्रा का ये रथ।
रोज गिनता हूँ ,
हर मील पर लगे पत्थर
तिलक मस्तक पर दे,
गले मिलती है ये रज।
तुम प्रलोभन न दो!
बस,
मुझे जाने दो।
सूखे बृक्षों के स्वागत को,
स्वीकारने दो।
काली पथरीली पर्वत श्रृंखलाओं से
मन प्रफुल्लित कर ससम्मान मिलने दो।
(मौलिक व अप्रकाशित )
निःशब्द।
क्या रचना है।
एक सांस में पढ़ गया ऊपर से नीचे।
अति सुंदर।
विनम्र आभार आदरणीय अजय गुप्ता जी।
सुन्दर कविता, सुंदर भाव किन्तु केंद्रीय भाव में खेत और खलिहान उभर नहीं पा रहे हैं। सादर....
विनम्र आभार आदरणीय अरुण कुमार निगम जी। आपने ठीक कहा है परन्तु अब खलिहान तो बचे ही नहीं हैं। एक समय था जब खलहान में कटी फसल महीनो तक रखी रहती थी और वायु के रुख के हिसाब से उड़ावनी की जाकर अन्न के छोटे बड़े ढेर दिखाई पड़ते थे, जिसका अलग सौंदर्य था। अब तो बड़े किसान हार्वेस्टर और छोटे किसान भी किराये की ही सही, मशीनों से ही कार्य लेने लगे हैं। खेत ही खलिहान में बदल गए हैं। फसल काटने के बाद केवल अवशेष ही दिखाई देते हैं। प्रकृति भी अब अनुकूल नहीं रही, यह भी दुखित करता है किसान को , कुछ इसी प्रकार की व्यथा को अंकित करने का प्रयास मात्र है। सादर।
अति सुंदर और प्रवाहमयी कविता कही है आ० टी आर सुकुल जी, हार्दिक बधाई निवेदित है.
रचना को मान देने के लिए विनम्र आभार आदरणीय योगराज प्रभाकर जी।
आद0 टी आर जी सादर अभिवादन। बढिया सृजन। बधाई आपको।
विनम्र आभार आदरणीय सुरेन्द्रनाथ जी।
जनाब टी आर शुक्ल साहिब ,सुन्दर रचना हुई है मगर खेत और खलिहान की बात खुल कर सामने नहीं आई । मुबारक बाद क़ुबूल फरमायें।
आदरणीय शुक्ल जी आपकी रचना बहुत बेहतरीन है कितनी भी प्रशंसा की जाय कम है बहुत बहुत बधाई
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