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आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानीजी,
आपकी कथा का तथ्य पाठक के हृदय में गहरे पैठ बना जाने में सक्षम है. इस तथ्य की धौंक हर उस व्यक्ति को महसूस होगी जिसके घर-परिवार में सैद्धांतिक जीवन के प्रति आग्रह अबतक बना हुआ है. बदलते ज़माने की अपनी मांग और विचारों में सात्विक सिद्धांतों के प्रति अदम्य उत्साह एवं जीवन्त संलग्नता ! आजके दौर में ही नहीं, ऐसा मानसिक द्व्ंद्व हर समय रहा है. यह अवश्य है कि कुछ वर्षो पूर्व तक जीवन जीने के ढंग में इतना दिखावा या बनावटीपन नहीं था. जिस कारण सामान्यतया सैद्धांतिक व्यवहार का सहज निर्वहन आम हुआ करता था. अब परिस्थितियाँ बहुत बदल गयी हैं. जीवन जीने की आवश्यक शर्तों में कई ऐसे विन्दु सायास या अनायास मान्यता पा गये हैं जिनका होना सिवा दिखावा के और कुछ नहीं. अलबत्ता उनका न होना किसी पारिवारिक मुखिया के लिए मानसिक प्रताड़ना का कारण हो जाता है. यह सात्विक ढंग से जीने वालों के लिए दोहरी मार है.
ऐसे तथ्य को कथ्य का जामा पहनाने का प्रयास हर तरह से श्लाघनीय है, आदरणीय. यह अवश्य है कि लघुकथा के साँचे में यह हो नहीं पाया है. इस पर अन्यान्य सुधीजनों ने इशारा किया है. अतः मैं उन्हीं पंक्तियों को दुहराऊँगा नहीं. यह आश्वस्तिकारी अवश्य है कि आपमें विधा के प्रति अथक लगन है जो आपकी टिप्पणियों से द्रष्टव्य है.
आपकी इस प्रस्तुति के माध्यम से बनी आपकी सकारात्मक सहभागिता के प्रति मैं हृदयतल से शुभकामनाएँ देता हूँ.
शुभेच्छाएँ
बहुत सुंदर लघुकथा के लिए बधाई हो
सुन्दर भावाभिव्यक्ति कुएँ के मेंढक के रूप में ...माहौल के मुताबिक न चलने वाले बहुत पीछे छूट जाते हैं ...वैसे आजकल के दौर के साथ आगे बढ़ने से अच्छा हैं कूप मंडूक ही बने रहें ..बहुत बधाई आपको आदरणीय
बहुत बड़ा सच कह दिया आपने आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी साहब'. //"मज़े की ज़िन्दगी के लिए अगर लाखों से खेलना है न, तो सिर्फ 'मेहनत' से कुछ नहीं होता इस ज़माने में !!!" // इस पंक्ति को समझने वाले ईमानदार व्यक्ति को कितने ही ताने पड़ते हैं| अमीर आदमी और बड़े आदमी में अंतर हम भूल चुके हैं, और जब तक समझ में आता है देर हो जाती है| इस रचना हेतु मेरी तरफ से बधाई स्वीकार करें|
अरे, मैं वही हूँ जो आपके 'जीन्स' में है, जो 'अनुवांशिक' है ......'हेरेडिटी' है ! मेहनत करना आता है मुझे ! ईमानदार हूँ, न भ्रष्टाचार करूँगा और न ही किसी के सामने झुकूंगा । किसी की खुशामद करूँगा नहीं । उधार किसी से लूँगा नहीं, झूठ बोलूंगा नहीं।-- सुन्दर प्रत्युत्तर बेटे का।-- सुन्दर लघुकथा के लिए बधाई आपको आ. शेख उस्मानी जी
लघुकथा- प्रत्युत्तर
“ अब हमें शादी कर लेनी चाहिए,” दो साल तक लव इन रिलेशन शिप में रह रहे रोहन ने कविता से कहा.
“ अभी मैंने इस बारे में नहीं सोचा है,” कविता यश की यादों में खोई हुई थी.
“ मैं नहीं चाहता हूँ कि तुम यश से मिलो ?”
“ वह मेरा दोस्त है. उस से मिलना मुझे अच्छा लगता है.”
“ इसीलिए कह रहा हूँ कि हम शादी कर लेते हैं. अब तुम्हारी दो साल की ट्रेनिंग भी पूरी हो गई है. नौकरी भी लग गई हैं . कोई मजबूरी भी नहीं हैं,” उस ने लगभग चींखते हुए कहा.
“ मुझे तुम पर विश्वास नहीं है !” कविता भी चींखती हुई रो पड़ी.
“ मेरे साथ दो साल रहने के बावजूद !” उस ने कविता को झंझोड़ दिया, “ तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है !”
“ हाँ. दो साल रहने के बावजूद. क्यों कि तुम अपनी ब्याहता बीवी के सगे नहीं हो सके तो मेरे क्या होओगे ! इसलिए मैं यश से शादी करने जा रही हूँ ,” प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए बिना कविता तुरंत घर से निकल पड़ी.
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(मौलिक व अप्रकाशित )
आदरणीय अर्चना जी यह जानकर ख़ुशी हुई कि आप भी कुछ इसी तरह सोच रही थी. इस समसामयिक सोच पर लघुकथा पर अपने विचार रखने के लिए आप का तहेदिल से शुक्रिया.
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