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बहुत सुंदर ,चुस्त कथानक प्रस्तुत किया आपने शान्ति जी . अक्सर ऐसा होता है सपने तो माँ-बाप बो देतें हैं बेटियों के मन में पर शादी के नाम अधकच्ची फसल काट बेटी की आकांक्षाओं को कुचल देतें हैं .
माँ बाप की आकांक्षा के तले खुद की इच्छा दब जाती है , बढ़िया प्रस्तुति | बहुत बहुत बधाई आपको
आकांक्षा
‘आकांक्षा बड़ी हो गयी है ------‘
लिप्सा चिहुंक उठी I वह भयभीत होकर बिस्तर पर बैठ गयी – ‘कौन ----? कौन है यहाँ ?’
‘पहचाना नहीं ? मेरी बेटी को बारह साल से पाल रही हो I ’
लिप्सा को कोई दिखाई नहीं दिया I पर उसका अपराध-बोध सजग हो उठा – ‘तुम---? तुम मुझे डरा नहीं सकती I आज से बारह वर्ष पूर्व तुम मर चुकी थी I’
‘हाँ, तुमने मारा था मुझे I अपने बांझपन को झुठलाने और अपनी आकांक्षा पूरी करने के लिए I ‘
‘य्यानी---तुम सचमुच ---?’-लिप्सा भय से काँप उठी I
‘हाँ मैं सचमुच, मुझे आकांक्षा के बड़े होने का इन्तेजार था और वह बड़ी हो गयी I अब उसे तुम्हारे सहारे की जरूरत नहीं I‘
‘तो अब तुम क्या चाह्ती हो ?’- लिप्सा ने थूक निगलते हुये पूंछा I
‘सिंपल, अब मैं अपनी आकांक्षा पूरी करना चाहती हूँ I’ उसने अपनी शब्द पर जोर देते हुए कहा I
‘तुम्हारी आकांक्षा ---?’
‘हाँ’
‘और वह है क्या ?; -लिप्सा पसीने से तर थी I
‘बदला –--------! जान के बदले जान----- तुम्हारी जान ‘
‘न—न --नहीं ---------‘ – लिप्सा की आवाज डूबती चली गयी I उसका प्रतिरोध उसके गले में घुटकर रह गया I
(मौलिक व् अप्रकाशित )
निर्मल मन के द्वारा किया गया अपराध -बोध उस मन के त्रासदी का कारण बनता है। जरा -जरा सी भयभीत करती हुई भूतिया सी लघुकथा·······पढ़ते हुए डर का हावी होना वाजिब कारण था मेरा। मन को भयभीत करती हुई शानदार लघुकथा। बधाई स्वीकार करें आदरणीय डॉ गोपाल नारायण जी। :))))
आद०गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी, गंभीर मसले को उठाती इस लघुकथा के लिए बधाई
उत्कृष्ट रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ गोपाल जी।
जनाब गोपाल नारायण जी , अच्छी एवं सीख देती लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई। ..
मृत्यु पश्चात् के सूक्ष्म शरीर के ज़रिये आपने इन चंद पंक्तियों में जो अभिव्यक्ति की है आदरणीय सर, वो गजब की है| मानव मन में अपराध का बोध 12 वर्ष के बाद भी नहीं मिट सका, आजीवन नहीं मिट सकता, अंतिम समय में सब याद आता ही है| सादर बधाई स्वीकार करें इस रचना के सृजन हेतु|
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