परम आत्मीय स्वजन,
"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" के ३० वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है|इस बार का तरही मिसरा मुशायरों के मशहूर शायर जनाब अज्म शाकिरी साहब की एक बहुत ही ख़ूबसूरत गज़ल से लिया गया है| तो लीजिए पेश है मिसरा-ए-तरह .....
"रात अंगारों के बिस्तर पे बसर करती है "
२१२२ ११२२ ११२२ २२
फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन
अति आवश्यक सूचना :-
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
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हसरत साहब ...इस गज़ल को पसंद करने के लिए मैं आपका शुक्रगुज़ार हूँ
,,,,,,,,माँ,,,,,,,
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वॊ दुआयॆं मॆरॆ वास्तॆ शामॊ-सहर करती है ॥
बॆशक मॆरी मुशीबतॊं कॊ बॆअसर करती है ॥१॥
कॊई शक हॊ तुम्हॆं,तॊ आज़मा कॆ दॆख लॊ,
माँ की दुआ दवा सॆ पहलॆ असर करती है ॥२॥
लौट कर घर पहुँचता नहीं मैं जब तलक,
इन्तज़ार मॆरा वॊ जाग-जाग कर करती है ॥३॥
ज़रा भी ना-साज़ हॊ,तबियत औलाद की,
रात अंगारॊं कॆ बिस्तर पॆ बसर करती है ॥४॥
डांट दॆती है कभी मुझकॊ गुस्सॆ मॆं अगर,
पछतावा भी फिर वही रात भर करती है ॥५॥
तंग आकॆ मॆरी, बदमाशियॊं सॆ रॊ दॆती है,
कहती कुछ नहीं वॊ,हॊंठ थर-थर करती है ॥६॥
लाख कॊशिशॊं करॆ कॊई झूठ छुपता नहीं,
मुआयना कुछ ऎसा,उसकी नज़र करती है ॥७॥
ख्वाहिश औलाद की हॊ भलॆ कितनी बड़ी,
पूरी हर-हाल मॆं उसकॊ माँ मगर करती है ॥८॥
नॆकियॊं का पैग़ाम दॆती हमॆशा औलाद कॊ,
मुनासिब कामयाबी की हर डगर करती है ॥९॥
"राज" लाखॊं सज़दॆ करूं कदमॊं मॆं उसकॆ,
मॆरी खुशियॊं कॆ वही, खड़ॆ सज़र करती है ॥१०॥
कवि- "राज बुन्दॆली"
२८/१२/२०१२
आदरणीय राज बुन्देली साहब प्रतीत होता है की आपने बड़ी जल्दबादी में ग़ज़ल लिखी है, भाव अपना पंख खोलने में असमर्थ से लग रहे हैं. ऐसा मुझे लगता है, कृपया अन्यथा न लें प्रयास हेतु बधाई .
अरुन शर्मा "अनन्त" जी भाई साहब,,,,,,मैने तो अपनी तरफ़ से भाव स्पष्ट करने का प्रयास किया है,,,,,लेकिन अगर माँ की ममता की भाषा भी आपकी समझ मे नही आई तो मै उसके लिये क्षमा प्रार्थी हूं,,,,,,,,,,,
आदरणीय सर माँ की ममता की भाषा को समझने हेतु शब्दों की आवश्यकता नहीं होती, यह भाषा मुझसे बेहतर और कौन समझेगा मेरी तो हर रोज माँ से बात होती है, खुले आसमां के तले महसूस करता हूँ, कहता हूँ, सुनता हूँ, समझता हूँ. गुरुजन इस पर अपना विचार और प्रकाश अवश्य डालेंगे. मेरे द्वारा कहे गए शब्दों से आपको ठेस पहुंची हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ सादर.
कॊई शक हॊ तुम्हॆं,तॊ आज़मा कॆ दॆख लॊ,
माँ की दुआ दवा सॆ पहलॆ असर करती है ॥२....असर है..
कहती कुछ नहीं वॊ,हॊंठ थर-थर करती है ॥६॥..wah
ख्वाहिश औलाद की हॊ भलॆ कितनी बड़ी,
पूरी हर-हाल मॆं उसकॊ माँ मगर करती है ॥८॥
sunder bhaw-yukt.. "राज बुन्दॆली" साहब..
मुसलसल ग़ज़ल कहने का अच्छा प्रयास किया है आदरणीय राज बुन्देली साहिब। रचना के भाव सुन्दर हैं लेकिन बहुत जगह वज़न बह्र भटक रहा है। बहरहाल इस सद्प्रयास हेतु मेरी बधाई स्वीकारें
वाह
भाव के साथ ऐसा बह गया कि रचना पढ़ कर समाप्त होने के बाद ही रुका
सुन्दर भावाभिव्यक्ति
विशेष बधाई
माँ के विविध रूप दर्शाती , ममता की महक बिखेरती पावन गज़ल.........
बहुत ही उम्दा- गजल के रूप में सुन्दर प्रार्थना
माँ की अर्चना में गजब के शेर कहे हैं ..बेहेतारिन
माँ के लिए आपके मन में जो सम्मान है वह सार्वभौमिक है. इस उच्च विचार को आधार बना कर अच्छी मुसलसल ग़ज़ल कही है आपने राज़ साहब. पूर्ण विश्वास है, आप आदरणीय योगराज भाई जी के सुझाव पर आप अवश्य ध्यान देंगे.
शुभेच्छाएँ
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