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हमने बाँट ली ज़मीन
फिर आसमान
अब बाँट लिए
चाँद सूरज और तारे
फिर बाँटा
देश-वेश, रहन- सहन
रंग-ढंग, जाति- प्रजाति
ख़ुदग़रज़ई
बढ़ती जा रही है.
अब हमने छुपा दिया है
सदभावना को, भाईचारे को
किसी गहरी खाई में.
हम अब नहीं बाँटना चाहते
सहज स्नेह
आमने- सामने..
.
(मौलिक व अप्रकाशित)
Posted on February 24, 2016 at 8:00am — 4 Comments
आप कैसे देखते है?
उसे कैसे स्वीकारते है
दुलार्ते हैं या नकारते हैं
यह आप पर निर्भर है.
आपके समाज पर निर्भर है.
कैकेई भी, कौशल्या भी,
देवकी और यशोदा भी
वाचाल मंथरा भी.
पुरुष की जननी भी
माता और भगिनी भी.
ज्वाला की अग्नि भी.
आप कैसे देखते है?
आधुनिकसमाज सुधारकों के अनुसार
दलित, शोषित, पीड़ित,उपेक्षित
वंचित, कुचलित भी वही है.
आप कैसे देखते है?
मौलिक व अप्रकाशित
Posted on February 7, 2016 at 4:03pm — 6 Comments
उकेर दिया है
समय की रेत पर
अपना हस्ताक्षर.
जानता हूँ
ख़त्म हो जाएगा
रेत के बिखराव से
मेरा वज़ूद.
संभावना यह भी
किसी संकुचन क्रियावश
घनीभूत हो रेत
प्रस्तर बन जाय .
तब देख पाओगे
खंडित होने तक
मेरा हस्ताक्षर.
कुच्छ भी तो नहीं है
अनंत.
(विजय प्रकाश)
मौलिक व अप्रकाशित
Posted on September 5, 2015 at 1:30pm — 12 Comments
हमारे अंदर का बनिया
सब कुच्छ बेचता है,
राम भी, कृष्ण भी,
धर्म और ईमान भी,
तीर और कमान भी.
अब उसके दुकान में
नये- नये समान हैं,
झूठाई, सपनों की मिठाई,
दंभ के साथ बढ़ती ढिठाई
ईन्हे वो रोज नई नई
जगहों पे सजाता है
ज़ोर से आवाज़ लगाता है
हिंदू हो या मुसलमान,
सिख हो या ख्रिस्तान,
उसके लिए सभी बराबर हैं.
वो बड़ी ईमानदारी से
बेईमानी बेचता हैं
दरअसल जो बिकता है
वही टिकता है.
मौलिक वा…
ContinuePosted on April 15, 2015 at 8:00am — 12 Comments
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