पर्वत की तुंग
शिराओं से
बहती है टकराती,
शूलों से शिलाओं से,
तीव्र वेग से अवतरित होती,
मनुज मिलन की
उत्कंठा से,
ज्यों चला वाण
धनुर्धर की
तनी हुई प्रत्यंचा से.
आकर मैदानों में
शील करती धारण
ज्यों व्याहता करती हो
मर्यादा का पालन.
जीवन देने की चाह
अथाह.
प्यास बुझाती
बढती राह.
शीतल, स्वच्छ ,
निर्मल जल
बढ़ती जाती
करती कल कल
उतरती नदी
भूतल समतल
लेकर ध्येय जीवनदायी
अमिय भरे
अपने…
Added by Neeraj Neer on January 28, 2014 at 10:04am — 36 Comments
शाख पर लगा
अलौकिक सौंदर्य पर इतराता
वसुधा को मुंह चिढ़ाता
मुसकुराता इठलाता
मस्त बयार मे कुलांचे भरता
गर्वीला पुष्प !..........
सहसा !!!
कपि अनुकंपा से
धराशायी हुआ
कण कण बिखरा
अस्तित्व ढूँढता
उसी धरा पर
भटकता यहाँ से वहाँ
उसी वसुधा की गोद मे समा जाने को आतुर ...
बेचारा पुष्प !!!
अप्रकाशित एवं मौलिक
Added by annapurna bajpai on January 25, 2014 at 10:30am — 21 Comments
साथी! तोड़ न निर्दयता से चुन चुन मेरे पात...
नन्हीं एक लता मैं निर्बल,
मेरे पास न पुष्प न परिमल,
मेरा सञ्चित कोष यही बस,
कुछ पत्ते कुम्हलाये कोमल,
तोड़ न दे यह शाख अकिञ्चन, निर्मम तीव्र प्रवात...
मैं हर भोर खिलूँ मुस्काती,
पर सन्ध्या आकुलता लाती,
साँस साँस भारी गिन गिन मैं,
रजनी का हर पहर बिताती,
एक नये उज्ज्वल दिन की आशा, मेरी हर रात...
पड़ती तेरी ज्वलित दृष्टि जब,
भीत प्राण भी हो जाते तब,
सहमी सकुचायी मैं…
Added by अजय कुमार सिंह on January 22, 2014 at 3:30pm — 20 Comments
छीन लेगा मेरा .गुमान भी क्या
इल्म लेगा ये इम्तेहान भी क्या
ख़ुद से कर देगा बदगुमान भी क्या
कोई ठहरेगा मेह्रबान भी क्या
है मुकद्दर में कुछ उड़ान भी क्या
इस ज़मीं पर है आसमान भी क्या
मेरा लहजा ज़रा सा तल्ख़ जो है
काट ली जायेगी ज़बान भी क्या
धूप से लुट चुके मुसाफ़िर को
लूट लेंगे ये सायबान भी क्या
इस क़दर जीतने की बेचैनी
दाँव पर लग चुकी है जान भी क्या
अब के दावा जो है मुहब्बत का
झूठ ठहरेगा ये…
Added by वीनस केसरी on January 20, 2014 at 12:30am — 26 Comments
2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2
अब राजनीति सबकी रगों में समा गई
विश्वास खो गया,तो कंही आस्था गई ।।
मैं देखता हूँ मेरे नगर में ये क्या हुआ,
लडकी खुशी-खुशी से ही इज्जत लुटा गई।
हर मोड पर जो शहर के आवारगी खडी,
मैं क्या करूँ बजुर्गों की चिन्ता बढा गई।
बादल न जाने किसके हवन पर गया कंही,
रूठी हुई सी तन्हा अकेली हवा गई।
महफिल में ही किसी ने मेरी बात छेड दी,
सुनते ही इतना रूप की गागर लजा…
ContinueAdded by सूबे सिंह सुजान on January 14, 2014 at 10:30pm — 25 Comments
ज़िंदगी के यज्ञ में खुद को हवन करना पड़ा
आंसुओं से ज़िंदगीभर आचमन करना पड़ा....
मंज़िलों से दूरियाँ जब ,कम नहीं होती दिखीं
क्या कमी थी कोशिशों में,आंकलन करना पड़ा .....
ऐसे ही पायी नहीं थी देश ने स्वतन्त्रता
इस को पाने के लिए क्या क्या जतन करना पड़ा ...
जाने मुंसिफ़ की भला थी कौन सी मजबूरियां
फैसला हक़ में मेरे जो दफ़अतन करना…
Added by Ajay Agyat on January 11, 2014 at 7:00pm — 16 Comments
किसको पता कि कौन हूँ मैं ....
कोई शब्द नहीं निःशब्द हूँ मैं ....
खुद के चित्कार में छुप जाता हूँ
मेरा अस्तित्व,
मेरी संवेदनाएं
सन्नाटों ने खूब पढ़ा है
मेरे अनकहे शब्दों को
और ठंडी चुभती सर्द हवाओं ने
महसूस करा है ....
मेरे शब्दों के एहसास को .....
बहुत कुछ कहता हूँ
दिन भर ....
तुमसे, सबसे
पर सच कहूँ तो
आज तक
मैं, सिर्फ निःशब्द हूँ .....
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Amod Kumar Srivastava on January 9, 2014 at 10:49pm — 20 Comments
१. “ मैं ”
मैं-मैं तू करके हुआ, भौतिक सुख में लीन
अहम् भाव और देह की, रहा बजाता बीन
रहा बजाता बीन , नहीं ‘मैं’ को पहचाना
परम तत्व को भूल ,जोड़ता रहा खजाना
क्या दिखलाकर दाँत, करेगा केवल हैं हैं ?
जब पूछें यमराज, कहाँ बतला तेरा मैं ||
२. “ तुम “
तुम-मैं मैं-तुम एक है , परम ब्रम्ह का अंश
जाति- धर्म इसका नहीं , और न कोई वंश
और न कोई वंश ,यही तो अजर - अमर…
ContinueAdded by अरुण कुमार निगम on January 7, 2014 at 10:57pm — 12 Comments
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