(एक)
तुम क्या चुकाओगे
मेरी मेहनत की कीमत
मेरी जवानी
मेरे सपने
मेरी उम्मीदें
सब-कुछ तो दफ्न है
तुम्हारी इमारतों में।
(दो)
जब चलती हैं
झुलसा देने वाली गर्म हवाएँ
कवच बन जातीं है
यही सूरज की किरणें
हमारे लिए ।
मुसलधार बारिश
जब हमारे बदन को छूती है
फिर से खिल उठता है
हमारा तन
ऊर्जावान हो…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on January 16, 2014 at 10:30pm — 16 Comments
नियम/अनुशासन
सब आम लोगों के लिए है
जो खास हैं
इन सब से परे हैं
उन पर लागू नहीं होते
ये सब
ख़ास लोग तो तय करते हैं
कब /कौन/ कितना बोलेगा
कौन सा मोहरा
कब / कितने घर चलेगा
यहाँ शह भी वे ही देते हैं
और मात भी
आम लोग मनोरंजन करते हैं
आम लोगों का रेमोट
ख़ास लोगों के हाथों में होता है
वे नचाते हैं
आम लोग नाचते हैं.....
मगर हालात
हमेशा एक जैसे नहीं होते
और न ही…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on January 8, 2014 at 12:00pm — 11 Comments
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