‘धुंध’ : हरि प्रकाश दुबे
“अरे आइये – आइये अवस्थी जी, आज इतनी सर्द शाम को आप मेरे घर, वाह! अरे रुकिए पहले पीने के लिए कुछ लेकर आता हूँ, ये लीजिये ब्रांडी है, ठीक रहेगी । पर यह क्या, इतना पसीना क्यों आ रहा है आपको?”
“अरे कुछ ख़ास नहीं, बस थोडा सा घबरा गया था।“
ओह !..“ अवस्थी जी अब पहेलियाँ मत बुझाइये, ठीक –ठीक बताइये की हुआ क्या ?”
“क्या बताऊं चौधरी साहब ! आज अभी कुछ देर पहले, कुछ बाइक सवार लोगों ने मुझे रास्ते में घेर लिया, जबरन गाड़ी का शीशा खुलवाया और…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on January 26, 2016 at 12:15am — 10 Comments
क्यों लेटी हो गुमसुम सी,
सिर्फ एक अंगडाई दो मुझे ,
ऐसे न दो तुम विदाई मुझे,
रास आती नहीं जुदाई मुझे !
क्यों चुप हो सन्नाटे सी,
कभी तो सुनाई दो मुझे
लें आती थी खुशबू तुम्हारी,
फिर वही पुरवाई दो मुझे !
सर्द रातों में रजाई ओढ़ातीं,
फिर वही रजाई दो मुझे
जिससे चिराग रोशन करतीं,
फिर वही दियासलाई दो मुझे !
जिससे मन में सुर घोलतीं
फिर वही शहनाई दो मुझे
जिससे गीत लिखे थे…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on January 1, 2016 at 7:15pm — 2 Comments
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