२२१/२१२२/२२१/ २१२२
किस काम के हैं नेता किस काम का ये शासन
इनके रहे वतन में जब नित्य होनी अनबन।१।
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किस बात से हैं सेवक कहते पहन के खादी
निर्धन के घर अगर ये डलवा न पाये राशन।२।
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अंग्रेज थे बुरे या चम्बल के चोर डाकू
गर जो हो लूट खाना भर देश का ही जनधन।३।
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किस बात की हो चिन्ता किस बात से परेशाँ
मथकर के दे रही है जनता इन्हें तो…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 30, 2020 at 4:38am — 2 Comments
विकसित होकर हम ने कैसी ये तस्वीर उकेरी है
आदमयुग थी यार न दुनिया जितनी आज अँधेरी है।१।
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बारूदों की जिस ढेरी पर नफरत आग लिए बैठी
उससे सब कुछ ध्वंस में बोलो लगनी कितनी देरी है।२।
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जिसको देखो वही चोट को लाठी लेकर डोल रहा
कहने को पर सब के मन में सुनते पीर घनेरी है।३।
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मजहब पन्थों के हित में तो…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 27, 2020 at 6:19am — 8 Comments
मेरे साथ चलने वाले तुझे क्या मिला सफर में
बड़ा चैन था अमन था बड़ा सुख था तुझको घर में।१।
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कहीं दुख भरी ज़मीं तो कहीं गम का आसमाँ है
लिए सुख की चाहतें हम अभी लटके हैं अधर में।२।
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जहाँ देखता हूँ दिखता मुझे सिर्फ ये धुआँ है
रह फर्क अब गया क्या भला गाँव और' नगर…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 22, 2020 at 8:09am — 6 Comments
जो दुनिया को सबका ही घर कहता है
वो क्यों मुझ को रहने से डर कहता है।१।
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हद से बढ़कर निजता का अभिमान हुआ
अब हर क़तरा खुद को समन्दर कहता है।२।
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मिट्टी की तासीरें जिस को ज्ञात नहीं
वो लालच में धरती बन्जर कहता है।३।
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ढोंगी है या फिर कोई अवतार लखन
मालिक बनकर खुद को नौकर कहता है।४।
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जिसके पास नहीं है दाना वो भी अब
मैं दाता हूँ, …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 16, 2020 at 5:17am — 12 Comments
२२२२/२२२२/२२२२/२२२
ये मत समझो मान के अपना गले लगाने आया है
जीवन में खुशियाँ कैसे हैं भेद चुराने आया है।१।
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अनहोनी सी लगती मुझको अब कुछ होने वाली है
नदिया के तट आज समन्दर प्यास बुझाने आया है।२।
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जिसके पुरखे भटकाने की रोटी खाया करते थे
वो कहता है आज देश को राह दिखाने आया है।३।
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जिस बस्ती को दसकों पहले हमने खूब सदाएँ दी
उस बस्ती को सूरज देखो आज जगाने आया है।४।
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अपने हिस्से तूफाँ तो थे माझी भी क्या खूब…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 14, 2020 at 7:28am — 10 Comments
२२१/२१२१/२२२/१२१२
पर्दा सलीके से बहुत मकसद पे डाल कर
वो लाये सबको देखिए घर से निकाल कर।१।
कितना किया अहित है यूँ अपने ही देश का
लोगों ने उसके नाम पर पत्थर उछाल कर।२।
वंशज उन्हीं के कर रहे जर्जर इसे यहाँ
रखना जो कह गये थे ये कश्ती सँभाल कर।३।
कर्तब तेरे किसी को यूँ आते समझ नहीं
तू भी निजाम नित नया मत अब कमाल कर।४।
कर ली है पाँच साल यूँ नेतागरी बहुत
बच्चों सरीखा…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 8, 2020 at 4:26pm — 11 Comments
छोड़ गये थे केवट जिन को तूफानी मझधारों पर
साहिल वालो उनसे पूछो क्या बीती दुखियारों पर।१।
हम जैसों की मजबूरी थी हालातों के मारे थे
कहने वाले खुदा स्वयम् को नाचे खूब इशारों पर।२।
आग जलाकर मजहब की नित सबने जो तैयार किये
सच में हर पल देश हमारा बैठा उन अंगारों पर।३।
माग रहे हैं तोड़ के घर को नित…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 5, 2020 at 4:55am — 10 Comments
२२१/२१२१/२२२/१२१२
मिट्टी को जिसने देश की चन्दन बना लिया
जीवन को उसने हर तरह पावन बना लिया।१।
करते नमन हैं उस को नित छोटा भले सही
जिसने भी अपना सन्त सा यौवन बना लिया।२।
कहते हैं राह रच के ही रहजन हुए मगर
अब तो वही है जिसने पथ भटकन बना लिया।३।
साधन हो साध्य से अधिक पावन ये रीत थी
पर अब फरेब झूठ को साधन बना लिया।४।
जो उम्र पढ़ने लिखने की पत्थर हैं हाथ में
कैसा सुलगता देश का बचपन बना…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 3, 2020 at 6:32am — 4 Comments
बर्षों से जब रहते आये दुख से मालामाल यहाँ
सुख आकर भी कर पायेगा फिर कितना कंगाल यहाँ।।
तुम रख लेना शायद तुमको उम्मीदों का साल मिले
हमने तो हर पल है खोया उम्मीदों का साल यहाँ।।
शीष झुकाये रहे सहिष्णुता जैसे सब की दोषी हो
खूब मजहबी झगड़े रहते ताने अब तो भाल यहाँ।।
साल नया कितनी उम्मीदें…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 1, 2020 at 5:51am — 10 Comments
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