(1222 1222 1222 1222 )
तड़प उनकी भी चाहत की इधर जैसी उधर भी क्या ?
लगी आतिश मुहब्बत की इधर जैसी उधर भी क्या ?
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मिलन के बिन तड़पते हैं वो क्या वैसे कि जैसे हम
जो बेचैनी है सोहबत की इधर जैसी उधर भी क्या ?
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हुआ है अनमना सा दिल हुई कुछ शाम भी बोझिल
तम्मना आज ख़िलवत की इधर जैसी उधर भी क्या ?
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बग़ैर इक दूसरे के जी सकें और मर न पाएँगे
ज़रूरत ऐसी…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 29, 2020 at 12:00am — 7 Comments
(2122 1122 1122 22 /112 )
बोल उठी सच हैं लकीरें तेरी पेशानी की
इस जवानी ने बहुत जिस्म की मेहमानी की
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क्या दिया कोई किसी अपने को धोका तूने
वज्ह आख़िर तो कोई होगी पशेमानी की
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वक़्त का पहिया लगातार चले मर्ज़ी से
फ़िक्र उसको नहीं दुनिया की परेशानी की
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आब जिस रूप में हो उसकी बशर है क़ीमत…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 27, 2020 at 11:00pm — 4 Comments
(1222 1222 1222 1222 )
ज़रा सोचें अगर इंसान सब लोहा-बदन होते
यक़ीनन फिर क़ज़ा आने पे पत्थर के क़फ़न होते
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निज़ामत ग़ौर करती गर ग़रीबों की तरक़्क़ी पर
वतन में अब तलक भी लोग क्या नंगे बदन होते ?
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फ़िरंगी की अगर हम नक़्ल से परहेज़ कर लेते
नई पीढ़ी के फ़रसूदा भला क्या पैरहन होते ?
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जूँ लुटती आज है लुटती इसी मानन्द गर क़ुदरत
तो क्या दरिया शजर बचते कहीं पर कोई बन होते ?
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अगर इन्सां न मज़हब और फिरकों में बँटा…
ContinueAdded by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 25, 2020 at 5:00pm — 3 Comments
एक ताज़ा गीत
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क्यों चलते औरों के पथ पर
स्वयं बनाओ अपनी राहें |
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माँ की उँगली थाम बहुत तुम
सीख गए पाँवोँ पर चलना |
लेकिन अब काँटों के पथ पर
खुद ही गिरना और सँभलना |
जीवन-रण से बचना मुश्किल
लड़कर करनी जीत सुनिश्चित,
भाग नहीं सकता है कोई
मित्र भागना खुद को छलना |
तुम अपने जीवन के नायक
कोई काम करो अब ऐसा,
जिससे तुम पर दुनिया भर के
सब लोगों की टिके निगाहें…
ContinueAdded by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 23, 2020 at 12:00am — 2 Comments
एक गीत
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बाहर के डर से लड़ लेंगे
भीतर का डर कैसे भागे |
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बचपन से देखा है हमने
अक्सर खूब डराया जाता |
दुःख यही है अपनों द्वारा
ऐसा क़दम उठाया जाता |
छोटी छोटी गलती पर भी
बंद किया जाता कमरे में,
फिर शाला में अध्यापक का
डण्डा हमें दिखाया जाता |
एक बात है समता का यह
लागू रहता नियम सभी पर,
निर्धन या धनवान सभी के
बच्चे रहते सदा…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 21, 2020 at 11:30am — 4 Comments
(221 2121 1221 212 )
बैठे निग़ाहें किस लिए नीची किये हुए
क्या बात है बताइए क्यों लब सिले हुए
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काकुल के पेच-ओ-ख़म के हैं अंदाज़ भी जुदा
सर से दुपट्टा जैसे बग़ावत किये हुए
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मिज़गाँ के साहिलों पे टिकी आबजू-ए-अश्क
काजल बिखेरने की जूँ हसरत लिये हुए
**
क्यों हो गए हैं आपके रुख़्सार आतशीं
जैसे कनेर लाल ख़िज़ाँ में खिले हुए
**
शेरू को ख़ौफ़ इतना है बैठा दबा के दुम
मैना के सुर भी…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 20, 2020 at 11:30am — 4 Comments
(221 1221 1221 122 )
क्या टूट चुका दिल है जो वो दिल न रहेगा ?
जज़्बात बयाँ करने के क़ाबिल न रहेगा ?
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तालीम अगर देना कोई छोड़ दे जो शख़्स
क्या आप की नज़रों में वो फ़ाज़िल* न रहेगा ?(*विद्वान )
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फ़रज़न्द के बारे में भला कौन ये सोचे
दुख-दर्द में इक रोज़ वो शामिल न रहेगा
**
दो चार अगर झूठ पकड़ लें तो न सोचें
जो खू से है मजबूर वो बातिल* न रहेगा (*झूठा )
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आया है सज़ा काट के जो क़त्ल की उसके
धुल जाएँगे क्या पाप वो क़ातिल न रहेगा…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 19, 2020 at 12:00am — 8 Comments
(1222 1222 1222 1222 )
छुड़ाना है कभी मुमकिन बशर का ग़म से दामन क्या ?
ख़िज़ाँ के दौर से अब तक बचा है कोई गुलशन क्या ?
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कभी आएगा वो दिन जब हमें मिलकर सिखाएंगे
मुहब्बत और बशरीयत यहाँ शैख़-ओ-बरहमन क्या ?
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क़फ़स में हो अगर मैना तभी क़ीमत है कुछ उसकी
बिना इस रूह के आख़िर करेगा ख़ाना-ए-तन* क्या ?(*शरीर का भाग )
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निग़ाह-ए-शौक़ का दीदार करने की तमन्ना है
उठेगी या रहेगी बंद ये आँखों की चिलमन क्या ?
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अगर बेकार हैं तो काम ढूंढे या करें बेगार…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 18, 2020 at 12:00am — 6 Comments
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 14, 2020 at 1:00am — 2 Comments
(1222 1222 1222 1222 )
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किसी भी रहरवाँ को जुस्तजू होती है मंज़िल की
सफ़ीनों को मुसल्सल खोज रहती है जूँ साहिल की
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न करना तोड़ने की कोशिश-ए-नाकाम इस दिल को
बड़ी मज़बूत दीवारें सनम हैं शीशा-ए-दिल की
**
किया तीर-ए-नज़र से वस्ल की शब में हमें बिस्मिल
नहीं मालूम क्या है आरज़ू इस बार क़ातिल की
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सियाही पोतने से रोशनी का रंग नामुमकिन
बनाएगी तुम्हें बातिल ही संगत रोज़ बातिल*…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 11, 2020 at 4:00pm — 2 Comments
ग़ज़ल ( 221 2121 1221 212 )
महसूस होता क्या उसे दर्द-ए-जिगर नहीं
या दर्द मेरा कम है कि जो पुर-असर नहीं
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महलों में रहने वाले ही क्या सिर्फ़ हैं बशर
फुटपाथ पर जो सो रहे वो क्या बशर नहीं
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साक़ी सुबू उड़ेल दे है तिश्नगी बहुत
ये प्यास दूर कर सके पैमाना-भर नहीं
**
इंसान सब्र रख ज़रा ग़म की भले है शब
किस रात की बता हुई अब तक सहर नहीं
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या रब ग़रीब का हुआ…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 9, 2020 at 11:30pm — 5 Comments
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