भर्त्सना के भाव भर, कितनी भला कटुता लिखें?
नर पिशाचों के लिए, हो काल वो रचना लिखें।
नारियों का मान मर्दन, कर रहे जो का-पुरुष,
न्याय पृष्ठों पर उन्हें, ज़िंदा नहीं मुर्दा लिखें।
रौंदते मासूमियत, लक़दक़ मुखौटे ओढ़कर,
अक्स हर दीवार पर, कालिख पुता उनका लिखें।
पशु कहें, किन्नर कहें, या दुष्ट दानव घृष्टतम,
फर्क उनको क्या भला, जो नाम, जो ओहदा लिखें।
पापियों के बोझ से, फटती नहीं अब ये धरा
खोद कब्रें, कर…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 25, 2013 at 10:00pm — 67 Comments
छोड़ आए गाँव में वो, ज़िंदगानी याद है।
सौंपकर पुरखे गए जो, वो निशानी याद है।
गाँव था सारा हमारा, ज्यों गुलों का इक चमन,
शीत, गर्मी, बारिशों की, ऋतु सुहानी याद है।
एक हो खाना खिलाना, रूठ जाने की अदा,
फिर मनाने मानने की, वो कहानी याद है।
छुप-छुपाते, खिलखिलाते, हँस हँसाते रात दिन,
फूल, बगिया, बेल-चम्पा, रात रानी याद है।
मुँह अँधेरे, त्याग बिस्तर, भागना भूले कहाँ?
हाथ में माँ से मिली, गुड़ और धानी याद…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 22, 2013 at 10:30pm — 30 Comments
गजल...
एक नन्हीं प्यारी चिड़िया, आज देखी बाग में।
चोंच से चूज़े को भोजन, कण चुगाती बाग में।
काँप जाती थी वो थर-थर, होती जब आहट कोई,
झाड़ियों के झुंड में, खुद को छिपाती बाग में।
ढूंढती दाना कभी, पानी कभी, तिनका कभी,
एक तरु पर नीड़ अपना, बुन रही थी बाग में।
खेलते बालक भी थे, हैरान उसको देखकर,
आज ही उनको दिखी थी, वो फुदकती बाग में।
नस्ल उसकी देश से अब, लुप्त होती जा रही,
बनके…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 16, 2013 at 5:30pm — 5 Comments
हिन्दी गजल...
गर्मियों की शान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
धूप में वरदान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
हर पथिक हारा थका, पाता यहाँ विश्राम है,
भेद से अंजान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
नीम, पीपल, हो या वट, रखते हरा संसार को,
मोहिनी, मृदु-गान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
हाँफते विहगों की प्यारी, नीड़ इनकी डालियाँ,
और इनकी जान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
रुख बदलती है मगर, रूठे नहीं मुख मोड़कर,
सृष्टि का…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 15, 2013 at 5:30pm — 28 Comments
नवगीत
छाँव निगलकर हँसता सूरज,
उगल रहा है धूप।
शीतलता को रखा कैद में,
गर्मी लाया साथ।
तप्त दुपहरी रानी बनकर,
बाँट रही सौगात।
फ्रूट-चाट, कुल्फी, ठंडाई,
सभी सुहाने रूप।
रातें छोटी दिन हैं लंबे,
लू का बढ़ा प्रकोप।
घने पेड़ भी तपे आग से,
शीत हवा का लोप।
चीं चीं, चूँ चूँ, कांव कांव सब,
ढूंढ रहे नल कूप।
सड़क किनारे ठेले वाले,
राहत लिए…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 14, 2013 at 1:30pm — 16 Comments
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