शायद हो ख्वाब
तुम्हे व्योम में उड़ते देखा
तुम्हारे बाल बल खाते
और
लहराता प्यार का आँचल
उड़ने की होती है अपनी ही मुद्रा
परियो के अनुराग सी
नैनों के राग सी
प्रात के विहाग सी
इस उड़ने में नहीं कोई स्वन
या पद संचालन की अहरह धुन
उड़ते ही रहना मीत
धरणि पर न आना
रेशम सी किरणों पर मधु-गीत गाना
दूर तो रहोगी, पर दृग-कर्ण-गोचर
पास आओगी तो
फिर एक अपडर
धरती पर टिकते ही परी जैसे…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 19, 2015 at 11:17am — 7 Comments
सरगम भरता, कल-कल करता,
झर-झर झरता निर्झर सस्वर I
तम को छलता, पग-पग चलता,
धक्-धक् जलता सूरज सत्वर II
सन-सन बहता, गुम-सुम रहता,
क्या-कुछ कहता रह-रह मारुत I…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 15, 2015 at 4:30pm — 20 Comments
मुतकारिब मुसम्मन सालिम
122 122 122 122
न जाने किये कौन से रतजगे हैं
मुझे आप से तुम वो कहने लगे है
पिया है अमिय रूप वह जो तुम्हारा
पड़ा हूँ , सभी रोम रस में पगे हैं
हुआ पाटली नैन का जोर जादू
खड़े इंद्र गन्धर्व सब तो ठगे हैं
जिन्हें काम का देवता लोग कहते
तुम्हे देखकर काम उनके जगे हैं
हुआ है अभी यह नया नेह बंधन
कि लगते मुझे वे सगों से…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 8, 2015 at 8:20pm — 16 Comments
मुतकारिब मुसम्मन सालिम
१२२ १२२ १२२ १२२
तुम्हे आज प्रिय नीद ऐसी सुलायें
झरें इस जगत की सभी वेदनायें I
नहीं है किया काम बरसो से अच्छा
चलो नेह का एक दीपक जलायें I
गरल प्यार में इस कदर जो भरा है
असर क्या करेंगी अलायें-बलायें I
तुम्हारी अदा है धवल -रंग ऐसी
कि शरमा गयी चंद्रमा की कलायें I
जगी आज ऐसी विरह की तड़प है
सहम सी गयी है सभी चेतनायें…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 5, 2015 at 8:00pm — 34 Comments
मुतकारिब मुसद्दस सालिम
१२२ १२२ १२२
अधूरा मिलन है हमारा
नहीं प्यार ऐसा गवारा I
मिले गर न हम इस जनम में
जनम साथ लेंगे दुबारा I
भटकता अकेला गगन में
विपथ एक टूटा सितारा I
समय की बड़ी बात होती
कहाँ आज जश्ने बहारा I
तपस्या सदृश मूक जीवन
सभी ने जतन से संवारा I
अभी से थका जीव-मांझी
बहुत दूर पर है किनारा I
कहाँ…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 2, 2015 at 5:30pm — 18 Comments
मुतदारिक मुसद्दस सालिम
212 212 212
सो गया सो गया सो गया
चाँद आकाश में खो गया I
ढूंढते थे जिसे उम्र भर
लो यहीं था अभी तो गया I
प्यार का बीज मन में मेरे
कोई चुपके से आ बो गया I
नैन जबसे उलझ ये गये
चैन ना जाने क्या हो गया I
चोट खाया बहुत प्यार में
वो दिवाना अभी जो गया I
था सहारा बहुत प्यार से
दूर लेकिन चला वो गया…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 1, 2015 at 2:00pm — 20 Comments
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