(१२२ १२२ १२२ १२२ १२२ १२२ १२२ १२२ )
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वफ़ा ढूंढते हो जफ़ा के नगर में यहाँ पर वफ़ा अब बची ही कहाँ है
बुझी है वफ़ा की मशालें दिलों से वफ़ा का नहीं कोई नाम-ओ-निशाँ है
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यहाँ राज करते हवस के पुजारी किसी की नहीं है मुहब्बत से यारी
इधर बेवफ़ाओं का लगता है मेला कोई बावफ़ा अब न मिलता यहाँ है
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इधर पैसा फेंको दिखेगा तमाशा अगर जेब ख़ाली मिलेगी हताशा
इधर है न…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 31, 2019 at 4:30pm — 2 Comments
(२१२२ ११२२ ११२२ २२/११२ )
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रंज-ओ-ग़म हो न अगर आँखें कभी रोती क्या ?
बेसबब साहिल-ए-मिज़गाँ पे नमी होती क्या ?
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ज़ख़्म ख़ुद साफ़ करें और लगाएं मरहम
ज़ख़्म क़ुदरत किसी के ज़िंदगी में धोती क्या ?
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चन्द लोगों के नसीबों में लिखी है ग़ुरबत
ज़ीस्त सबकी ग़मों का बोझ कभी ढोती क्या ?
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बाग़बाँ फ़र्ज़ निभाता जो तू मुस्तैदी से
तो कली बाग़ की अस्मत को कभी खोती क्या ?
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क्यों किनारे पे कई बार सफ़ीने डूबे
इस तरह रब कभी क़िस्मत किसी की…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 28, 2019 at 12:30am — 4 Comments
कितना अफ़्कार में मश्ग़ूल हर इक इन्साँ है
कोई बेफ़िक्र अगर है तो सियासतदाँ है
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ख़ाक उड़ती है जिधर देखूँ उधर सहरा-सी
इस क़दर दिल का नगर आज मेरा वीराँ है
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बात गुस्से में कही फिर से ज़रा ग़ौर तो कर
"जी ले तू प्यार के बिन " कहना बहुत आसाँ है
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कोई अफ़सोस नहीं गर मेरी रुसवाई का
शर्म से क्यों हुई ख़म यार तेरी मिज़गाँ…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 26, 2019 at 9:30pm — 2 Comments
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