वेदियों सा तप्त मन अपने लिए
कर रहा सारे हवन अपने लिए
अपनेपन को छोड़ मतलब साधते
दोस्त का होता चयन अपने लिए
मूढ़ मन में मैल ले गंगा नहा
कर रहा है आचमन अपने लिए
तितलियों को हांक कर भंवरे कहें
फूल कलियाँ हैं चमन अपने लिए
देश की है फ़िक्र किस इंसान को
हर कहीं चिंतन मनन अपने लिए
हिंदियों की नाक ऊँची कर रहा
पश्चिमी का ला चलन अपने लिए
आँख दिखलाता है वो माँ बाप को
संस्कृति का कर हनन अपने लिए…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 30, 2013 at 10:30am — 6 Comments
दोहन करते प्रकृति का, बड़े बड़े विद्वान्
चला चला बस योजना, बनते खूब महान
बनते खूब महान , हरे जंगल कटवाते
दूषित कर परिवेश, कारखाने बनवाते
धरा बचाने आज, नहीं आने मनमोहन
अब तो कर दो बंद, लोगो प्रकृति का दोहन
संदीप पटेल “दीप”
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 5, 2013 at 5:55pm — 13 Comments
आओ ज़रा शहर निहारें
चमचमाती सड़कों पर
चमचमाती कारें
ऊँचे ऊँचे दीप्ति खंभ
अँधेरे को पीते
बड़े बड़े लट्टू
रग रग में संचरित होता दंभ
सुन्दर बाग़
ये महल अटारी
मशीन भारी भारी
और कुछ बड़ी बीमारी
सब तन रहा है
गाँव गाँव
अब शहर जो बन रहा है
बढ़ रहा है
धीरे धीरे
अटारी पर अटारी
तानी जा रही हैं
जो प्रगति की निशानी
मानी जा रही है
बेशुध हुआ सा आदम
भागा जा रहा है
अरमानों के…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 5, 2013 at 1:00pm — 6 Comments
एक अँधेरी गली
सुनसान
वीरान
पथिक व्यथित
हलाकान
न कोई
हलचल
न कोई
आवाज
न साज
पथिक व्यथित
उदास
गहन अँधेरा
कालिमा का बसेरा
ह्रदय के स्पंदन
स्वर में बदल रहे हैं
चीत्कार
स्वयं की
बस स्वयं की
वर्षों सुनसान
गली में
चलते चलते
स्वयं से
परिचर्चा करते करते
कभी थाम लेता था
हाथ
स्वयं का दिलासा…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on June 2, 2013 at 12:00pm — 21 Comments
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