2122 1212 22/112/211
कुछ नहीं सूझता कई दिन से
जाने क्या हो रहा कई दिन से?
है अलग ये जुबाँ निगाहें अलग
क्यों नहीं राबता कई दिन से।
हो लबों पे हँसी भले कितनी
मन रहा डगमगा कई दिन से।
जल रहा दिल कोई सही में कहीं
गर्म लगती हवा कई दिन से।
खुद पे खुद का नहीं रहा काबू
यूँ चढ़ा है नशा, कई दिन से।
मौलिक अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on June 11, 2018 at 11:00pm — 13 Comments
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