फूल कैसे खिलें ? ( एक अतुकांत चिंतन )
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प्रेम विहीन हाथ मिले तो ज़रूर
मुर्दों की तरह , यंत्रवत
तो भी खुश हैं हम
शायद अज्ञानता और बेहोशी भी खुशी देती है ,एक प्रकार की
झूठी ही सही
और झूठी इसलिये
क्यों कि बेहोशी का सुख हो या दुख , झूठा ही होता है
इसलिये भी, क्योंकि
हम स्वयँ जीते ही कहाँ है
जीती तो है एक भीड़ हमारी जगह ,
भीड़ विचारों की , तर्कों – कुतर्कों की
भीड़ शंकाओं- कुशंकाओं की ,…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 30, 2014 at 6:42pm — 22 Comments
1222 1222 122
कहीं अब झाँकती है रोशनी भी
कहीं बदली लगी थोड़ी हटी भी
शजर अब छाँव देने लग गये हैं
फ़िज़ा में गूंजती है अब हँसी भी
निशाँ पत्थर में पड़ते लग रहे हैं
अभी है रस्सियों में जाँ बची भी
जहाँ चाहत मरी घुट घुट, वहीं पर
नई चाहत कोई दिल में पली भी
मिलेंगी शाह राहों से ये गलियाँ
गली से रिस रही है ये खुशी भी
मरे से ख़्वाब करवट ले रहे हैं
नज़र आने लगी है…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 26, 2014 at 1:30pm — 19 Comments
1222 1222 122
कोई खामोश, मेरा हम ज़बाँ है
बड़ी चुप सी ,मेरी हर दास्ताँ है
कोई अब साथ आये या न आये
अकेलेपन से मेरा कारवाँ है
कहीं है आदमी में उस्तवारी
कहीं हर शख़्स लगता नातवाँ है
ये मीठी झिड़कियाँ ज़ारी हैं जब तक
तभी तक कोई रिश्ता दरमियाँ है
यहाँ कब ज़िन्दगी हरदम है जीती
यहाँ तो मौत ही बस जाविदाँ है
दिया बाती कहीं से खोज लाओ
उजाला चंद पल का मेहमाँ…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 21, 2014 at 10:36am — 23 Comments
11212 11212 11212 11212
कई बाग़ सूने हुये यहाँ , कई फूलों में हैं उदासियाँ
कई बेलों को यही फिक्र है , कि कहाँ गईं मेरी तितलियाँ
कभी दूरियाँ बनी कुर्बतें, कभी कुरबतें बनी दूरियाँ
ये दिलों के खेलों ने दी बहुत , हैं अजब गज़ब सी निशानियाँ
कभी आप याद न आ सके, कभी हम ही याद न कर सके
रहे शौक़ में हैं लिखे मिले , कई गम ज़दा सी रुबाइयाँ
वो हक़ीक़तें बड़ी तल्ख़ थीं, चुभीं खार बनके इधर उधर
सुनो वो चुभन ही…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 12, 2014 at 9:30pm — 32 Comments
2122 2122 2
दिन टपक के सूख जाता है
हाथ में कुछ भी न आता है
मै पराया , वो पराया है
कौन किसमें अब समाता है ?
ग़म हक़ीक़ी भी मजाज़ी भी
देख किसको कौन भाता है
दर्द मै अपना दबा भी लूँ
ग़म तुम्हारा पर रुलाता है
खार चुभते जो रिसा था ख़ूँ
रास्ता वो अब दिखाता है
सूर्य तो ख़ुद जल रहा यारों
वो किसी को कब जलाता है
ख़्वाबों में आ आ के शिद्दत…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 4, 2014 at 9:39am — 22 Comments
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