हे भाग्य विधात्री, जन सुख दात्री, मातु भारती, वंदन है ।
मां माटी तोरी, सौंधी भोरी, रज कण माथे, चंदन है ।।
गिरि हिम आच्छादित, करते प्रमुदित, मुकुट मणी सा, सोहत है ।
धरा मनोहारी, मातु तुम्हारी, हरि हर को भी, मोहत है।।
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मौलिक अप्रकाशित
Added by रमेश कुमार चौहान on June 29, 2014 at 9:14am — 10 Comments
आदमी से आदमीयत, खो गई है रे कहां ।
आदमी से आदमी को, डर तभी तो है यहां ।।
आदमी में जो पड़ा है, स्वार्थ का साया जहां ।
आदमी अब आदमी से, बच नही पाये यहां ।।
आदमी आतंकवादी, उग्रवादी जो बने ।
आदमी के हाथ दोनो, खून से ही हैं सने ।।
मर्द जो है आदमी में, वो बलत्कारी लगे ।
गोद की बेटी उसे तो, ना दिखे अपने सगे ।।
आदमी को आदमी जो, है बनाना फिर कहीं ।
आदमी में तो जगाओ, आदमीयत फिर वही ।।
आदमी जो आदमी से, प्रेम करने फिर लगे…
Added by रमेश कुमार चौहान on June 17, 2014 at 11:00pm — 6 Comments
छप्पय छंद
बेटी होना पाप, त्रास में जीवन सारा ।
जन्म पूर्व ही घात, उसे कितनों ने मारा ।।
कंपित होती सांस, वायु है दूषित सारी ।
छेड़ छाड़ हर पाद, नगर गांव बलात्कारी ।।
गली गली में भेडि़या, नोचें बेटी मांस को ।
जीवित होकर लाश हैं, बेटी सह इस त्रास को ।।
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मौलिक अप्रकाशित
Added by रमेश कुमार चौहान on June 5, 2014 at 3:00pm — 14 Comments
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