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Vijay nikore's Blog – June 2018 Archive (4)

काल कोठरी

काल कोठरी

निस्तब्धता

अँधेरे का फैलाव

दिशा से दिशा तक काला आकाश

रात भी है मानो ठोस अँधेरे की

एक बहुत बड़ी कोठरी

सोचता हूँ तुम भी कहीं …

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Added by vijay nikore on June 24, 2018 at 1:22am — 37 Comments

परदेशी-बाबू

थाहों में टटोलती कुछ, कहती थी 

जाकर वहाँ फूलों की सुगन्ध में

नकली-कागज़ी मुस्कानों की उमंग में

क्या याद भी करोगे मुझको

बताओ  न 

स्मरण में सहज दोड़ती आऊँगी क्या ?

या, जाते ही वहाँ बन जाओगे वहाँ के

पराय-से अजीब अस्पष्ट परदेशी-बाबू तुम

नई मुख-आकृतियों के बीच देखोगे भी क्या

मुढ़कर, मद्धम हो रही इस पुरानी पहचान को

या सरका दोगे इसे स्मृतिपटल से

तुम मात्र मिथ्या कहला कर इसे

माना कि टूटा है हमारा वह…

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Added by vijay nikore on June 18, 2018 at 9:00pm — 8 Comments

ताहिर तामीर

रोशनी का कोई  सुराख़ न सही

बेरुखी ही प्यार का अंदाज़ सही

कोई गिला नहीं कोई शिकवा नहीं

यह माना कि जिगर में तुम्हारे

कोई तीखी  ख़राश है आज

तल्खी  है, कसक  है  बहुत

है  कशमकश  भी  बेशुमार

इस  पर  भी  परीशां  न  हो

खालीपन  को  तुम

बहरहाल  खाली  न  समझो

आएँगे लम्हें जब कलम से तुम्हारी                        

अश्कों  के  मोती  गिर-गिर  कर

किसी गज़ल के अश’आर बनेंगे

तब  तरन्नुम  से  पढ़ना  उनको

लाज़िमी है…

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Added by vijay nikore on June 12, 2018 at 1:30am — 20 Comments

अकुलायी थाहें

अकुलायी थाहें

कटी-पिटी काली-स्याह आधी रात

पिघल रहा है मोमबती से मोम

काँपती लौ-सा अकुलाता

कमरे में कैद प्रकाश

आँखों में चिन्ता की छाया

ऐसे में समाए हैं मुझमें

हमारे कितने सूर्योदय

कितने ही सूर्यास्त

और उनमें मेरे प्रति

आत्मीयता की उष्मा में

आँसुओं से डबडबाई तेरी आँखें

तैर-तैर आती है रुँधे हुए विवरों में

तेरी-मेरी-अपनी वह आख़री शाम

पास होते हुए भी मुख पर…

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Added by vijay nikore on June 10, 2018 at 12:13pm — 18 Comments

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