22 22 22 22 22 2
शीशा से पत्थर जब भी टकराता है
पत्थर पन कुछ और कड़ा हो जाता है
मुँह की बातों का, आँखें प्रतिकार करें
सही अर्थ तब शब्द कहाँ जी पाता है
लाख बदल के बोलो भाषा तुम लेकिन
लहज़ा असली कहीं उभर ही आता है
साजिंदों ने यूँ बदलें हैं साज बहुत
गाने वाला गीत पुराना गाता है
तुम पर्वत पर्वत कूदो , मै नदिया तैरूँ
मित्र, हमारा बस ऐसा ही नाता है
फिर से ताज़ा मत कर…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 26, 2015 at 10:02am — 16 Comments
2122 1212 22 /112
सुर्मई, शाम हो रही होगी
रात दस्तक भी दे चुकी होगी
रात के हक़ में गर अंधेरा है
सुब्ह के हक़ में रोशनी होगी
दिल ठहर, बस नज़र मिला…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 21, 2015 at 9:01am — 16 Comments
22 22 22 22 22 22 22 2 ---
पेडों पर इल्जाम लगा वो ख़ुद की खातिर जीता है
सोच रहा हूँ मैं सागर क्या अपना पानी पीता है ?
झूठा- सच्चा , सही ग़लत ये सब बे पर की बातें हैं
दिखे फाइदा, सच को मोड़ो जिसको जहाँ सुभीता है
सभी उँगलियाँ अलग हो गईं अहम बीच में आने से
चुल्लू में कुछ रुका नहीं , जो रीता था, वो रीता है
शब्द कोश बस रट लेने से भाव नहीं पैदा होता
व्यर्थ हाथ में रख लेना क़ुरआन बाइबिल गीता…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 16, 2015 at 7:39am — 15 Comments
2122 2122 2122 212
क्या मरासिम को हमारे इक सज़ा ही मान लूँ
क़ातिबे तक़दीर की कोई जफ़ा ही मान लूँ
भीड़ में मुझ तक पहुँच के थम गये थे जो क़दम
तुम कहो तो इत्तफाकन सामना ही मान लूँ
आपकी आँखों ने लिक्खे थे कई ख़त जो मुझे
हर्फ़े बेमानी समझ उनको अदा ही मान लूँ
बन्द आखें , हाथ ऊपर कर जो मांगी थी कभी
अब असर से क्या उसे मैं बद दुआ ही मान लूँ
अब परिंदे प्यार के उड़ कर नहीं आते इधर
क्यों न…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 15, 2015 at 9:16am — 22 Comments
1222 1222 122
बहारों पर् चलो चरचा करेंगे
ख़िजाँ का ग़म ज़रा हलका करेंगे
कभी सोचा नहीं, हम क्या बतायें
न होंगे ख़्वाब तो हम क्या करेंगे
सजा दे , हक़ तेरा है हर खता की
उमीदें रख न हम तौबा करेंगे
अगर जुगनू सभी मिल जायें, इक दिन
यही सर चाँद का नीचा करेंगे
सँभल जा ! हम इरादों के हैं पक्के
कि, मर के भी तेरा पीछा करेंगे
जिया अन्दर का बाहर आ तो जाये
सर इब्ने सुब्ह को नीचा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 13, 2015 at 8:30am — 18 Comments
1222 1222 1222 122
क़रीब आ ज़िन्दगी, तुझको समझना चाहता हूँ
मैं ज़र्रा हूँ , तेरी बाहों में फिरना चाहता हूँ
समेटा खूब , खुद को, पर बिखरता ही गया मैं
ग़ुबारों की तरह अब मैं बिखरना चाहता हूँ
जमा हर दर्द मेरा एक पत्थर हो गया है
ज़रा सी आँच दे , अब मैं पिघलना चाहता हूँ
तेरी आँखों मे देखी थी कभी तस्वीर खुद की
जमाना हो गया , मै फिर सँवरना चाहता हूँ
लगा के बातियाँ उम्मीद की ,दिल के दिये…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 11, 2015 at 9:00am — 12 Comments
122 122 122 122
जहाँ वाले यूँ तो बताते रहे हैं
हमी अपनी ख़ामी छुपाते रहे हैं
वो अमराई , झूले वो पेड़ों के साये
बहुत देर तक याद आते रहे हैं…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 8, 2015 at 6:12am — 16 Comments
1222 1222 1222 1222
पियाला वो किसी को भी, कभी भर कर नहीं देता
जिसे वो नींद देता है , उसे बिस्तर नहीं देता
कभी शीशा छुपाता है , कभी पत्थर नहीं देता
बहे गुस्सा मेरा कैसे , ख़ुदा अवसर नहीं देता
तुम्हारी हर ज़रूरत पर नज़र वो खूब रखता है
तुम्हारी ख़्वाहिशों पर ध्यान वो अक्सर नहीं देता
खुशी तुम भीतरी मांगो तो वो तस्लीम करता है
अगर बाहर के सुख मांगे तो वो भीतर नहीं देता
किया तुमने नहीं वादा शिकायत फिर…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 7, 2015 at 5:30am — 18 Comments
122 122 122 122
पियादे से राजा की फिर मात होगी
सरे सुब्ह लगता है फिर रात होगी
दिशायें जहाँ पर समझ की अलग हैं
वहाँ अब ठिकाने की क्या बात होगी
समझ कर ज़रा आप तस्लीम करिये
वो देते नहीं हक़ , ये ख़ैरात होगी
वही सुब्ह निकली , वही धूप पसरी
नया कुछ नहीं तो , वही रात होगी
यहाँ साजिशों में लगे सारे माहिर
सँभल के, यहाँ पीठ पर घात होगी
बड़ा ख़्वाब जिसका है, दिल भी बड़ा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 4, 2015 at 7:30am — 19 Comments
1222 1222 1222 1222
मुहब्बत कब छिपी है चिलमनों की ओट जाने से
नज़र की शर्म कह देगी तुम्हारा सच जमाने से
अरूजी इल्म में उलझे नहीं, बस शादमाँ वो हैं
हमे फुरसत नहीं मिलती कभी मिसरे मिलाने से
उदासी किस क़दर दिल में बसी है क्या कहें यारों
बस अश्कों का बहा दर्या है दिल के आशियाने से
अकड़ने से बढ़ा हो क़द , मिसाल ऐसी नहीं, लेकिन
झुके हैं बारहा लेकिन किसी के सर झुकाने से
कभी ये भी …
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 2, 2015 at 8:30am — 23 Comments
2122 2122 2122 212
मुस्कुराकर मौत जितनी पास आयी दोस्तो
ये न भूलो, ज़िन्दगी भी थी बुलाई दोस्तो
बेवफाई जाने कैसे उन दिलों को भा गई
हमने मर मर के वफा जिनको सिखाई दोस्तो
धूप फिर से डर के पीछे हट गई है, पर यहाँ
जुगनुओं की अब भी जारी है लड़ाई दोस्तो
कल की तूफानी हवा में जो दुबक के थे छिपे
आज देते दिख रहे हैं वे सफाई दोस्तो
आईना सीरत हूँ मैं, जब उनपे ज़ाहिर हो गया
यक-ब-यक दिखने लगी मुझमें बुराई…
Added by गिरिराज भंडारी on July 2, 2015 at 8:30am — 28 Comments
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