Added by vijay nikore on July 13, 2013 at 3:00pm — 36 Comments
कितना ही पास हो मृत्यु-मुखद्वार
सीमित सोचों के दायरों में गिरफ़्तार,
बंदी रहता है प्रकृत मानव आद्यंत ...
इर्ष्या, काम, क्रोध, मोह और लोभ,
राग और द्वेष
रहते हैं यंत्रवत यह नक्षत्र-से आस-पास,
प्रक्रिया में बन जाते हैं यह मानव-प्रकृति,
विकृतियों में व्यस्त, मिलती नहीं मुक्ति।
अहंमन्यता के अंधेरे कुँए में निवासित
अभिमान-ग्रस्त मानव संचित करे भंडार,
कुएँ की परिधि में वह मेंढक-सा सोचे
‘कितना विशाल…
ContinueAdded by vijay nikore on July 9, 2013 at 12:30pm — 16 Comments
नियमों की सरहदें
उलझी हुई मानवीय अपेक्षाओं से अनछुआ
तुम्हारे लिए मेरा काल्पनिक अलोकित स्नेह
किसी सांचे में ढला हुआ नहीं था,
और न हीं वह पिंजरे में बंद पक्षी-सा
कभी सीमित या संकुचित था लगा।
एक ही वृक्ष पर बैठे हुए हम
दो उन्मुक्त पक्षिओं-से थे,
कभी तुम चली आई उड़ कर पास मेरे,
और मैं गद-गद हो उठा, और कभी मैं
हर्षोन्माद में आ बैठा डाल पर तुम्हारी।
शैतान हँसी की हल्की-सी फुहार…
ContinueAdded by vijay nikore on July 3, 2013 at 1:00pm — 27 Comments
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