मेरा बीसवीं सदी का पुरातन स्नेह
यह इक्कीसवीं सदी के तुम्हारे
कभी न बदलने के वायदे
स्नेह की किरणों के पुल पर
एक संग उठते-गिरते-चलते
यह संवेदनशील हृदय कभी
तुम्हारा संबल बना था
चाँदनी-सलिल-सा तरल स्नेह
जीवन-यथार्थ का पिघला हुआ कुंदन ...
कहती थी
इसकी अमोल रत्न-सी आभा
थी तुम्हारी रातों में तेजोमय प्रेरणा
या असंतोष की धूप की छटपटाहटों में
ज्यों लहराई सनातन सत्यों की…
ContinueAdded by vijay nikore on July 10, 2016 at 3:59pm — 8 Comments
कोई कल्पना-स्वप्न ही होगा शायद
हुआ जो हुआ, वह इरादतन नहीं था
नियति की काल-कोठरी को बूझा है कौन
‘ कहाँ- कहाँ था मेरा दोष ’ का गंभीर भान
दोष कहीं कोई तुम्हारा नहीं था
जीवन के आरोह-अवरोह से डरी-डरी
अज्ञात भय से भीगी तुम कह देती थी ...
अनहोनी का होना कोई नया नहीं है
और मैं, गई रात की हिमीभूत टीस छिपाये
हलके-से दबाकर हाथ तुम्हारा
मुस्करा देता था
उस गंभीर पल को छल देता था
अनगिन…
ContinueAdded by vijay nikore on July 8, 2016 at 5:43pm — 12 Comments
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