मन सिहरा ,ठहरा तनिक ,देखा अप्रतिम रूप ,
भोर सुहानी ,सहचरी ,पसर गई लो, धूप !
रश्मि-रश्मि मे ऊर्जा और सुनहरा घाम,
बिखर गया है स्वर्ण-सुख लो समेट बिन दाम !
सुन किलकारी भोर की विहंसी निशि की कोख ,
तिमिर गया ,मुखरित हुआ जीवन में आलोक !
उगा भाल पर बिंदु सा लो सूरज अरुणाभ ,
अब निंदिया की गोद में रहा कौन सा लाभ !
_______________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल ,लखनऊ
(मौलिक और अप्रकाशित )
Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 12, 2013 at 11:00pm — 11 Comments
चेहरे पर चेहरे जड़े हैं,
अक्स लोगों से बड़े हैं !
खो गई पहचान जब से
जहाँ थे अब तक खड़े हैं !
अभी फूलों मे महक है
इम्तहां आगे कड़े हैं !
ठोकरों से दोस्ती है ?
राह मे पत्थर पड़े हैं !
इन्हें कुछ कहना नहीं
दर्द हैं ,चिकने घड़े हैं !
_______________प्रो. विश्वम्भर शुक्ल
(मौलिक और अप्रकाशित )
Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 9, 2013 at 9:30pm — 13 Comments
१~
बदलता अब कौन अपना आचरण है,
मधुर-स्मिति दर्द का ही आवरण है,
अनकहे शब्दों ने ढूँढी राह है ये
बादलों के बीच मे कोई किरण है !
२~
कोई छोटे हैं तो कोई बड़े हैं न,
हम सभी मुखौटे लिए खड़े हैं न,
असली चेहरा न तलाशिये हुज़ूर
एक चेहरे पर कई चेहरे जड़े हैं न !
३~
एक अनबुझी प्यास लिए हम गहरे कुएं हुए,
कभी लगी जो आग मित्र,हम उठते धुंएं हुए,
सजे हुए हैं हम…
Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 5, 2013 at 12:25am — 4 Comments
व्यस्तता ,ज़िंदगी ,खेद है ,
आपका तो वचन ,वेद है,
हैं मधुर आप,हम खुरदुरे
मित्र ,हम में यही भेद है !
*
दर्द के पुष्प आओ तजें,
हर्ष के पुष्प ही अब सजें,
एक स्मिति अधर पर धरें
नेह की बांसुरी से बजें !
*
उनको दिखना है अब ,नहीं न ,
छुपते रुस्तम दिखे,कहीं न ,
मुक्त आकाश में…
ContinueAdded by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 3, 2013 at 10:47pm — 6 Comments
उड़न -खटोले पर चढ़े, आये 'प्रभु' निर्दोष,
अपनी निष्क्रिय फ़ौज में जगा गए कुछ जोश !
राहत की चाहत जिन्हें उन्हें न पूछे कोय ,
इधर-उधर घूमे फिरे और गए फिर सोय !
भटक रहे विपदा पड़े, ढूंढ रहे हैं ठांव ,
ये अपने सरकार जी कब बांटेंगे छाँव ?
विपदा खूब भुना रहे सत्ता का सुख भोग,
भूखे,नंगे ,काँपते इन्हें न दिखते लोग !
श्रेय कौन ले जाएगा मची हुई है होड़,
जोड़-तोड़ के खेल…
ContinueAdded by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 2, 2013 at 11:15pm — 18 Comments
एक~
*
नफ़रत जितनी उतना प्यार,
इन पर अपना क्या अधिकार,
एक बिंदु पर पड़ा ठहरना
सरहद को करना मत पार !
दो~
*
ये कैसी इसकी रफ़्तार ,
बहुत प्यार धीमा है यार ,
सीमाएं कुछ उनकी हैं तो
अपनी भी सीमा है यार !
तीन~
*
नफरत छोडो ,प्यार लुटाओ
खुशियाँ और सनेह…
ContinueAdded by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 1, 2013 at 11:13pm — 9 Comments
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