(आज से करीब ३२ साल पहले: भावनात्मक एवं वैचारिक ऊहापोह)
रात्रिकाल, शनिवार ३०/०५/१९८१; नवादा, बिहार
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मेरी ये धारणा दृढ़ होती जा रही है कि सत्य, परमात्मा, आनंद, शान्ति- सभी अनुभव की चीज़ें हैं. ये कहीं रखी नहीं हैं जिन्हें हम खोजने से पा लेंगे. ये इस जगत में नहीं बल्कि हममें ही कहीं दबी और ढकी पड़ी हैं और इसलिए इन्हें इस बाह्य जगत में माना भी नहीं जा सकता, खोजा भी नहीं जा सकता, और पाया भी नहीं जा सकता....स्वयं के…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 26, 2013 at 1:26pm — 6 Comments
(आज से करीब ३२ साल पहले)
शनिवार ०४/०४/१९८१; नवादा, बिहार
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आज भी दवा मुझपे हावी रही. स्कूल से घर आने के बाद कुछ पढ़ाई की. परन्तु जैसे किसी बाहरी नियंत्रण में आकर मुझे पढ़ाई रोकनी पड़ी. ऊपर गया और मां से खाना माँगा. मगर ठीक से खाया भी नहीं गया. एक घंटे के बाद चाय के एक प्याले के साथ मैं वापिस नीचे अपने कमरे आया. कलम कापी उठाई और लिखने बैठ गया. मन कुछ हल्का हुआ.
मैंने ऐसा महसूस किया कि दवा का प्रभाव खाने के…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 22, 2013 at 2:00pm — 2 Comments
(आज से करीब ३२ साल पहले)
लगता है मुझे कोई बीमारी हो गई है. परसों पिताजी डॉक्टर के पास ले गए थे. नाक से बार बार खून आने लगा है. मां ने कहा है कि कुछ दिन मुझे नियमित रूप से दवा खानी होगी.
कल रात दवा खाई थी. नींद आ रही थी मगर आँख नहीं लग रही थी. देर रात बिस्तर पे करवटें बदलता रहा और सोचता रहा कि कब स्वस्थ होऊंगा. सुबह पौने छः बजे आँख खुली. ज़बरन बिस्तर से उठा, एक मदहोशी सी छाई थी. अकस्मात गुड्डी दादी के साथ हुई दुर्घटना ने सारे आलस्य को काफूर कर दिया. वो घर की…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 18, 2013 at 11:21am — 7 Comments
हे प्रभु,
मैंने मन मंदिर में
आपकी मूर्ति की स्थापना तो कर दी है
मगर इसकी प्राण-प्रतिष्ठा का काम तो आपका ही है
क्योंकि मुझमें यह कला नहीं.
अब आप ही इसके देव, आप ही इसके पुजारी,
और आप ही इसके उपासक हैं.
मैं तो इक इमारत भर हूँ
जो जड़ता के स्पंदन के स्तर तक ही जीवित
और अस्तित्ववान है.
हे नाथ,
जब तक आप इसके मूल में प्राणाहूत हैं,
इस प्रस्तरशिला रूपी संरचना का कोई अर्थ है.
हे मालिक,
समय-समय…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 8, 2013 at 8:30am — 6 Comments
पीड़ा ने जब कभी
शब्दों के दंश बनकर तुम्हें डंसना चाहा
प्रेम ने स्मिति बनकर अधरों को बाँध लिया...
उपेक्षाओं ने जब कभी
तुम्हारे जीवनपर्यंत त्याग का प्रण लिया
स्मृतियों की अलकों के आलिंगन ने और भी जकड़ लिया...
भावनाओं के उद्रेकों ने जब कभी
भावुकता से काम लिया
तुम्हारी परिस्थितिजन्य उदासीनता ने
मेरे विवेक को थाम लिया.....
मेरे जीवन में न होकर भी होने वाली
ओ मेरी महानायिका!
हमारा…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 6, 2013 at 12:38pm — 2 Comments
वक़्त फिर बदल गया. कुछ नया तो नहीं, कुछ पुराना भी न रहा. ज़िंदगी खुद अपनी पैमाइश में छोटी होती गई. यादों के काफिले सच की राह को छोटा कर गए. मंजिल की धुन में मौजूदगी का ख़याल न रहा. मौजूदा में डूबे तो मंजिल को भूल गए. जो मिला उसमें मुहब्बत न देख पाए और जो न मिला, उसे मुहब्बत की लुटी दुनिया समझके रोते रहे. सच और परछाइयों की कशमकश में दोनों ही नुक्सानज़दा हुए क्योंकि सच परछाइयों का अक्स है और परछाइयां सच की रूमानियत- और ज़िंदगी दोनों के तवाज़ुन…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 6, 2013 at 10:18am — 2 Comments
दिल ने जब भी खुद को कुरेदा है, मेरे खून के इलावा नाखून से तेरा खून भी चिपका है. अजब है ये इत्तेफाक.... कि मुसर्रत (खुशी) का न सही तुझसे दर्द का तो रिश्ता है. शायद इसलिए ही कि दर्दज़दा हुए जब भी तो मुझे अपना दर्द गरां (भारी) लगा क्योंकि इसमें तेरे दर्द की भी न चाही गई आमेज़िश (मिश्रण) थी.
नाखून से चस्पां (चिपका) खून का इक ज़र्रा ये खबर दे गया कि तुम अभी कहाँ हो, किधर हो, किस हाल हो, तुम्हारे चेहरे का रंग ज़र्द है या सुर्ख, तुम्हारी नसों में दौड़ता खून अभी थका है या पुरजोश,…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 6, 2013 at 10:14am — 2 Comments
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