मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
ये शायरी जबां है किसी बेजुबान की.
ज्यों महकती क्यारी हो किसी बागबान की..
आकाश की औकात क्या जो नाप ले कभी.
पाई खुशी परिंदे ने पहली उड़ान की..
हमको न देखा देखकर तुमने तो क्या हुआ?
दिल ले गया निशानी प्यार के निशान की..
जौहर किया या भेज दी राखी अतीत ने.
हर बार रही बात सिर्फ आन-बान की.
उससे छिपा न कुछ भी रहा कह रहे सभी.
किसने कभी करतूत कहो खुद बयान की..
रहमो-करम का आपके सौ…
Added by sanjiv verma 'salil' on August 31, 2011 at 12:00am — 3 Comments
Added by sanjiv verma 'salil' on August 27, 2011 at 8:46am — 3 Comments
एक गीत-
अमराई कर दो...
संजीव 'सलिल'
*
कागा की बोली सुनने को
तुम कान लगाकर मत बैठो.
कोयल की बोली में कूको,
इस घर को अमराई कर दो...
*
तुमसे मकान घर लगता है,
तुम बिन न कहीं कुछ फबता है..
राखी, होली या दीवाली
हर पर्व तुम्हीं से सजता है..
वंदना आरती स्तुति तुम
अल्पना चौक बंदनवारा.
सब त्रुटियों-कमियों की पल में
मुस्काकर भरपाई कर दो...
*
तुम शक्ति, बुद्धि, श्री समता हो.
तुम दृढ़ विनम्र शुचि ममता हो..…
Added by sanjiv verma 'salil' on August 26, 2011 at 7:26pm — 6 Comments
Added by sanjiv verma 'salil' on August 18, 2011 at 3:19pm — 5 Comments
Added by sanjiv verma 'salil' on August 13, 2011 at 8:30am — 3 Comments
दोहा सलिला:
गले मिले दोहा यमक...
संजीव 'सलिल'
*
गले मिले दोहा यमक, झपक लपक बन मीत.
गले भेद के हिम शिखर, दमके श्लेष सुप्रीत..
गले=कंठ, पिघले.
पीने दे रम जान अब, ख़त्म हुआ रमजान.
कल पाऊँ, कल का पता, किसे? सभी अनजान..
रम=शराब, जान=संबोधन, रमजान=एक महीना, कल=शांति, भविष्य.
अ-मन नहीं उन्मन मनुज, गँवा अमन बेचैन.
वमन न चिंता का किया, दमन सहे क्यों चैन??
अ-मन=मन…
Added by sanjiv verma 'salil' on August 11, 2011 at 10:00am — 7 Comments
बरसे पानी
संजीव 'सलिल'
*
रिमझिम रिमझिम बरसे पानी.
आओ, हम कर लें मनमानी.
बड़े नासमझ कहते हमसे
मत भीगो यह है नादानी.
वे क्या जानें बहुतई अच्छा
लगे खेलना हमको पानी.
छाते में छिप नाव बहा ले.
जब तक देख बुलाये नानी.
कितनी सुन्दर धरा लग रही, …
Added by sanjiv verma 'salil' on August 6, 2011 at 10:30am — 6 Comments
मुक्तिका:
..... बना दें
संजीव 'सलिल'
*
'सलिल' साँस को आस-सोहबत बना दें.
जो दिखलाये दर्पण हकीकत बना दें..
जिंदगी दोस्ती को सिखावत बना दें..
मदद गैर की अब इबादत बना दें.
दिलों तक जो जाए वो चिट्ठी लिखाकर.
कभी हो न हासिल, अदावत बना दें..
जुल्मो-सितम हँस के करते रहो तुम.
सनम क्यों न इनको इनायत बना दें?
रुकेंगे नहीं पग हमारे कभी भी.
भले खार मुश्किल बगावत बना दें..
जो खेतों में करती हैं मेहनत…
Added by sanjiv verma 'salil' on August 1, 2011 at 11:30am — 4 Comments
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