आरोह-अवरोह
कभी-कभी ... कभी कभी
आत्म-चेतन अंधेरे में ख़यालों के जंगल में
रुँधे हुए, सिमटे हुए, डरे-डरे
चुन रहा हूँ मानो अंतिम संस्कार के बाद
झुठलाती-झूठी ज़िन्दगी के फूल
और सौ-सौ प्रहरी-से खड़े आशंका के शूल
दो टूक हुई आस्था की काँट-छाँट
अच्छे-बुरे तजुर्बे बेपहचाने
पावन संकल्प, पुण्य और पाप
पानी और तेल और राख
कितना कठिन है प्रथक करना
सही और गलत के तर्क से ओझल हो कर
कठिन है…
ContinueAdded by vijay nikore on August 17, 2015 at 3:30pm — 12 Comments
परिणति पीड़ा
रिश्ते के हर कदम पर, हर चौराहे पर
हर पल
भटकते कदम पर भी
मेरे उस पल की सच्चाई थी तुम
जिस-जिस पल वहीं कहीं पास थी तुम
जीवन-यथार्थ की कठिन सच्चाइयों के बीच भी
खुश था बहुत, बहुत खुश था मैं
पर अजीब थी ज़िन्दगी वह तुम्हारे संग
स्नेह की ममतामयी छाओं के पीछे भी मुझमें
था कोई अमंगल भ्रम
भीतरी परतों की सतहों में हो जैसे
अन-चुकाये कर्ज़ का कंधों पर भार
तुमसे कह न सका पर इतनी…
ContinueAdded by vijay nikore on August 16, 2015 at 5:30pm — 30 Comments
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