व्योमकेश !
हम हो न
सकते नीलकंठ ....
गरल कर
धारण स्वयम
तुमने उबारा
संसृति को
अमिय देवों
ने पिया
झुकना पड़ा
आसुरी प्रकृति को
थम गया
तव कंठ में ही
सृष्टि का विध्वंस
हम हो न सकते ....
साक्षी थे
तुम भी तो
विकराल मंथन के
सर्प सम संतति
समूची
तुम ही चन्दन थे
विष तुम्हें डंसता नहीं
देता हमें शत दंश
व्योमकेश!
हम हो न सकते......
दृष्टि तेजोमय तुम्हारी …
Added by Vinita Shukla on September 20, 2012 at 11:00pm — 19 Comments
जिन्दगी थोड़ी बाकी थीकि गुज़र गई
नदी समन्दर के पास आकर मर गई
रात आईतो इमरोज़ किधर चला गया
दिन निकला तो लंबी रात किधर गई
आज यूँ अकेला हूँ मैं अपनों के बीच
इक भीड़ में मेरी तन्हाई भी घर गई
दरोदीवार पुतगए बरसातकी सीलनसे
अबके बरस छत की कलई उतर गई
जो लोग तेज थे उठा लेगए सब ईंटें
दीवार खामोश अपने कदसे उतर गई
हवाओंने गिराए जो पके फल धम्मसे
इक अकेली चिड़िया शाख पे डर गई…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 17, 2012 at 11:43pm — 18 Comments
सौरभ जी से चर्चा के पश्चात जो परिवर्तन किये हैं उन्हें प्रस्तुत कर रही हूँ
परिचर्चा के बिंदु सुरक्षित रह सके इस हेतु पूर्व की पंक्तियों को भी डिलीट नहीं किया है जिससे नयी पंक्तियाँ नीले text में हैं
गीत मे तू मीत मधुरिम नेह के आखर मिला
प्रीत के मुकुलित सुमन हो भाव मे भास्वर* मिला -----*सूर्य
हो सकल यह विश्व ही जिसके लिए परिवार सम
नीर मे उसके नयन के स्नेह का सागर मिला …
Added by seema agrawal on September 12, 2012 at 10:00am — 34 Comments
तुम कंचन हो,
मै कालिख हूँ!
तुम पारस, मै
कंकड़ इक हूँ!
तुम सरिता हो,
मै कूप रहा!
तुम रूपा, इत
ना रूप रहा!
जो मानव नहीं है उसको, देव की पांत है असंभव!
है तुलना न अपनी कोई, मिलन की बात है असंभव!
तुम ज्वाला हो,
मै…
ContinueAdded by पीयूष द्विवेदी भारत on September 11, 2012 at 2:30pm — 58 Comments
मान और सम्मान की,नहीं कलम को भूख
महक मिटे ना पुष्प की , चाहे जाये सूख |
खानपान जीवित रखे , अधर रचाये पान
जहाँ डूब कान्हा मिले , ढूँढो वह रस खान |…
Added by अरुण कुमार निगम on September 11, 2012 at 12:00am — 14 Comments
दोस्तों, ग़ज़ल पेश ए खिदमत है गौर फरमाएं ..
बचा है अब यही इक रास्ता क्या
मुझे भी भेज दोगे करबला क्या
तराजू ले के कल आया था बन्दर
तुम्हारा मस्अला हल हो गया क्या…
Added by वीनस केसरी on September 9, 2012 at 2:30am — 13 Comments
सात कांड में रची तुलसी ने ' मानस ' ;
आठवाँ लिखने का क्यों कर न सके साहस ?
आठवे में लिखा जाता सिया का विद्रोह ;
पर त्यागते कैसे श्री राम यश का मोह ?
लिखते…
Added by shikha kaushik on September 4, 2012 at 3:00pm — 15 Comments
ये कहाँ खो गई इशरतों की ज़मीं;
मेरी मासूम सी ख़ाहिशों की ज़मीं; (१)
फिर कहानी सुनाओ वही मुझको माँ,
चाँद की रौशनी, बादलों की ज़मीं; (२)
वक़्त की मार ने सब भुला ही दिया,
आसमां ख़ाब का, हसरतों की ज़मीं; (३)
जुगनुओं-तितलियों को मैं ढूंढूं कहाँ,
शह्र ही खा गए जंगलों की ज़मीं; (४)
दौड़ती-भागती ज़िंदगी में कभी,
है मुयस्सर कहाँ, फ़ुर्सतों की ज़मीं; (५)
गेंहू-चावल उगाती थी पहले कभी,
बन गई आज ये असलहों…
Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on September 3, 2012 at 3:00am — 32 Comments
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |