नहीं आऊंगी ( धारावाहिक कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
---------------अंतिम अंक --------------------
"कौन है?" मैंने हड़बड़ाकर पूछा .
Added by satish mapatpuri on September 26, 2011 at 10:00pm — 2 Comments
नहीं आऊंगी ( धारावाहिक कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
--------------- अंक - छः ---------------------
बम सदृश धमाका हुआ ......................मुझे कानों पर पर विश्वास नहीं हो रहा था पर यथार्थ हर हालत में यथार्थ ही होता है. मैं शालू का प्रस्ताव सुनकर अवाक था .
"शालू , जानती हो तुम क्या कह रही हो ?"
"अच्छी तरह. आपने ही तो कहा था कि बार-बार कहा जाने वाला झूठ भी सच हो जाता है . आज सब लोग मुझे आपकी प्रेमिका और महबूबा कह रहे हैं . मेरे नाम के साथ आपका नाम जोड़…
ContinueAdded by satish mapatpuri on September 24, 2011 at 10:20pm — No Comments
नहीं आऊंगी ( धारावाहिक कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
--------------- अंक - पांच ---------------------
उसे देखते ही शालू तीर की तरह निकल गयी
सुबह संजय से मालूम हुआ कि रात में शालू को बेहरहमी से पीटा गया है . समाज की संकीर्णता देखकर मेरा मन क्षुब्ध हो उठा .किसी लड़की का किसी लड़के से मिलने का एक ही मतलब निकालने वाला यह समाज सजग एवं सचेत रहने के नाम पर भयंकर लापरवाही का परिचय देता रहता है . शालू पर , जो अभी यौवन के पड़ाव से कुछ दूर ही थी , उसकी मां ने सुरक्षा के ख्याल…
ContinueAdded by satish mapatpuri on September 23, 2011 at 9:06pm — 2 Comments
नहीं आऊंगी ( धारावाहिक कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
--------------- अंक - चार ---------------------
मैं सोच नहीं पा रहा था की इस नयी परिस्थिति का किस तरह सामना करूँ . शालू जाने लगी तो मैनें उसे पकड़ कर पुनः बिठा दिया .
" शालू ,मुझे गलत मत समझो. मेरे दिल में तुम्हारे लिए अब भी वहीँ स्नेह है, पर मां की आज्ञा तुम्हें माननी चाहिए."
शालू का मेरे यहाँ आना-जाना अब काफी कम हो गया था. वह मेरे यहाँ तब ही आती थी जब उसकी मां और मधु या तो घर से बाहर हों या सो गयी…
ContinueAdded by satish mapatpuri on September 22, 2011 at 10:56pm — 2 Comments
नहीं आऊंगी ( धारावाहिक कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
--------------- अंक - तीन ---------------------
वह बड़ी हो चुकी थी. सदैव की भाँती एक दिन वह आकर मेरे बगल में बैठ गयी . मैं कुछ परेशान था .
"मुझसे नाराज है अंकल?" उसने पूछा .
"नहीं तो . सर में हल्का दर्द है ." मैंने यूं ही उसे टालने के ख्याल से…
ContinueAdded by satish mapatpuri on September 21, 2011 at 11:26pm — 3 Comments
नहीं आऊंगी ( धारावाहिक कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
--------------- अंक - दो ---------------------
तब मैं बी. ए. पार्ट -1 का छात्र था जब वर्माजी मेरे मकान में बतौर किरायेदार रहने आये थे . वे पिताजी का एक सिफारिशी खत अपने साथ लाये थे कि वर्मा जी मेरे आज्ञाकारी छात्र रहे हैं, बगलवाले फ्लैट में इनके रहने की व्यवस्था करा देना . मुझे भला क्यों आपत्ति होती . वर्माजी रहने लगे और मैं…
ContinueAdded by satish mapatpuri on September 20, 2011 at 11:00pm — No Comments
नहीं आऊँगी (कहानी )
लेखक - सतीश मापतपुरी
----------------- अंक - एक --------------------
मैं जब कभी बरामदे में बैठता हूँ , अनायास मेरी निगाहें उस दरवाजे पर जा टिकती है, जिससे कभी शालू निकलती थी और यह कहते हुए मेरे गले लग जाती थी - " अंकल, आप बहुत अच्छे हैं."
कई साल गुजर गए उस मनहूस घटना को बीते हुए. वक़्त ने उस घटना को अतीत का रूप तो दे दिया, किन्तु ............... मेरे लिए वह घटना आज भी ................. शालू की यादें शायद कभी भी मेरा पीछा…
ContinueAdded by satish mapatpuri on September 20, 2011 at 12:43am — No Comments
मतिमान सोचा करते हैं, चिंता भीरु करते हैं.
क्षणिक मोद में जो इठलाते, वही विपति से डरते हैं.
जिस तरह गोधुलि का होना, निशा - आगमन का सूचक है.
जैसे छाना जगजीवन का, पावस का सूचक है.
वैसे ही सुख के पहले, दुःख सदैव आता है.
जो मलिन होता दुःख से, सुख से वंचित रह जाता है.
सुख - दुःख सिक्के के दो पहलू , भेद मूर्ख ही करते हैं.
मतिमान सोचा करते हैं, चिंता भीरु करते हैं.
दुःख…
ContinueAdded by satish mapatpuri on September 18, 2011 at 3:45am — 2 Comments
मुझे देख के एक लड़की, बस हौले -हौले हँसती है I
प्रेम - जाल मैं डाल के थक गया, पर कुड़ी नहीं फंसती हैI
रहती है मेरे पड़ोस में वो, कुछ चंचल कुछ शोख है वो I
ना गोरी - ना काली है, सांवली है मतवाली है I
झील सी गहरी आँखें हैं , ज़ुल्फ़ यूँ काली रातें हैं I
लहरों जैसी बल खाती, दुल्हन जैसी शरमाती I
चेहरा चाँद है पूनम का, होंठ सुमन है उपवन का I
नाम है उसका नील कमल, वो है ज़िंदा ताजमहल…
ContinueAdded by satish mapatpuri on September 12, 2011 at 12:00am — 3 Comments
Added by satish mapatpuri on September 6, 2011 at 12:30am — 5 Comments
चेहरा ये कैसा होता गर आँख नहीं होती.
दिल कैसे फिर धड़कता गर आँख नहीं होती.
रक़ीब से भी बदतर हो जाते कभी अपने.
मालूमात कैसे होता गर आँख नहीं होती.
कितना हसीन है दिल चाक करने वाला.
एहसास कैसे होता गर आँख नहीं होती.
कुर्सी के नीचे बर्छी आखिर रखी है क्यूँ कर.
तहक़ीकात कैसे होती गर आँख नहीं होती.
मिलती औ झुकती - उठती फिर चार…
ContinueAdded by satish mapatpuri on September 1, 2011 at 12:08am — 10 Comments
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