स्पेनिश कवि पाब्लो नेरुदा की कविता "You Start Dying Slowly" के हिन्दी अनुवाद से प्रेरित
सब को धीरे धीरे मरना पड़ता है
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सब को धीरे धीरे मरना पड़ता है
आप चाहे तुच्छ हों या हों आप महान
आप चाहे पत्थर हों, पेड़ हों
पशु हों, आदमी हों, या कोई साहिबे जहान
आप चाहे बुलंद हों या जोशे नातवान
सब को धीरे धीरे मरना पड़ता है
आप चाहे विनीत हों या कोई दहकता…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on October 10, 2017 at 3:00pm — 10 Comments
ग़ज़ल २२१ २१२१ १२२१ २१२
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लूटा जो तूने है मेरा, अरमान ही तो है
उजड़ा नहीं है घर मेरा, वीरान ही तो है
वादा खिलाफ़ी शोखी ए खूबाँ की है अदा
आएगा कल वो क़स्द ये इम्कान ही तो है
सीखेगा दिल के क़ायदे अपने हिसाब से
वो शोख़ संगदिल ज़रा नादान ही तो है
नज़रे करम कि हुब्ब के कुछ वलवले…
Added by राज़ नवादवी on October 9, 2017 at 11:31pm — 14 Comments
ग़ज़ल- २२१ २१२१ १२२१ २१२
(फैज़ अहमद फैज़ की ज़मीन पे लिखी ग़ज़ल)
हारा नहीं हूँ, हौसला बस ख़ाम ही तो है
गिरना भी घुड़सवार का इक़दाम ही तो है
बोली लगाएँ, जो लुटा फिर से खरीद लें
हिम्मत अभी बिकी नहीं नीलाम ही तो है
साबित अभी हुए नहीं मुज़रिम किसी भी तौर
सर पर हमारे इश्क़ का इल्ज़ाम ही तो है
ये दिल किसी का है नहीं तो फिर हसीनों को
छुप छुप के यारो देखना भी काम ही तो है
उम्मीद क्या…
Added by राज़ नवादवी on October 6, 2017 at 8:00pm — 19 Comments
ग़ज़ल- १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
लिखा है गर जो किस्मत में तो फिर बदनाम ही होलें
न बाइज़्ज़त तो बेइज़्ज़त तुम्हारे नाम ही होलें
न कुछ करने से अच्छा है तू वादा तोड़ ही डाले
न हों कामिल वफ़ा में तो दिले नाकाम ही होलें
न हो महफ़िल तुम्हारी तो किसी महफ़िल में रोलें हम
चलो हम आज कूचा ए दिले बदनाम ही होलें
मुझे रिज़वान रख लें वो बहिश्ते ख़ूब रूई का
घड़ी भर को कभी मेरे वो हमआराम ही होलें
जो हों जन्नतनशीं…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on October 5, 2017 at 6:30pm — 14 Comments
ग़ज़ल- १२२२ १२२२ १२२२ १२२२२
मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन
मुनासिब है ज़रूरत सब ख़ुदा से ही रजा करना
कि है कुफ़्रे अक़ीदा हर किसी से भी दुआ करना
ग़मों के कोह के एवज़ मुहब्बत ही अदा करना
नहीं है आपके वश में किसी से यूँ वफ़ा करना
नई क्या बात है इसमें, शिकायत क्यों करे कोई
शग़ल है ख़ूबरूओं का गिला करना जफ़ा करना
अगर खुशियाँ नहीं ठहरीं तो ग़म भी जाएँगे इकदिन
ज़रा सी बात पे क्योंकर ख़ुदी को…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on October 3, 2017 at 12:32am — 17 Comments
ग़ज़ल- १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
किसी ने क्यों कतर डाले हैं परवाज़ों के पर मेरे
फ़रिश्ते भी हैं उक़बा में अज़ल से मुंतज़र मेरे
हुजूमे ग़ैर से कोई तवक़्क़ो क्या करूँगा मैं
मेरी क़ीमत न कुछ समझें ज़माने में अगर मेरे
फ़क़ीरी में गुज़ारी है ये हस्ती भी तुम्हारी है
तेरी ज़र्रा नवाज़ी है कभी आये जो घर मेरे
कहूँ क्या हाय शर्मों में छुपी उसकी मुहब्बत को
वो घबरा के जो देखे है इधर मेरे उधर मेरे
कहाँ तुझको…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on October 3, 2017 at 12:21am — 6 Comments
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