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राज़ नवादवी's Blog – October 2018 Archive (4)

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ६४

2212 1212 2212 12



दिल क्या लगे किसी का जब कोई न काम हो

इससे भला तो ग़ैब के घर में क़याम हो //1



कोशिश तो कर कि मुफ़लिसी मेरी न आम हो

मेरे दिवारो दर पे भी कोई तो बाम हो //2



इतना तो मेरी ख़्वाहिशों का एहतराम हो

गर हो न मय जो हल्क़ में, हाथों में जाम हो //3



कब तक हवाओं के फ़क़त बिखराव में जिऊँ

मेरे लिए भी ऐ ख़ुदा कोई निज़ाम हो…

Continue

Added by राज़ नवादवी on October 30, 2018 at 8:30pm — 14 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ६३

1222 1222 1222 1222



(मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़मीन पे लिखी ग़ज़ल)



जिन्हें भी टूट के चाहा वो पत्थर के सनम निकले

चलो अच्छा हुआ दिल से मुहब्बत के भरम निकले //1



उड़ें छीटें स्याही के, उठे पर्दा गुनाहों से

कभी तो तेग़ के बदले म्यानों से कलम निकले //2



हवा में ढूँढते थे पाँव अपने घर के रस्ते को

तेरी महफ़िल से आधी रात को पीकर जो हम निकले //3…

Continue

Added by राज़ नवादवी on October 26, 2018 at 4:30pm — 15 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ६२

2122 1122 1122 22/ 112

 

याद की तह से कई भूले फ़साने निकले

आज हम तेरे लिखे ख़त जो जलाने निकले //1

 

चाहता हूँ मैं तुझे अपनी अना से बढ़कर

इस यकीं तक तुझे लाने में ज़माने निकले //२ 

 

ये भी अहसान जताने की नई कोशिश है

ख़त्म जब हो चुका रिश्ता तो मनाने निकले //3

 

अब कोई इनको बताए कि क़ज़ा क्या शय है

जा चुके छोड़ के दुनिया तो बुलाने निकले //4

 

जिनने खाई थी क़सम मुझको नहीं देखेंगे

आज काँधे पे मेरी लाश…

Continue

Added by राज़ नवादवी on October 14, 2018 at 10:00am — 13 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ६१

2122 1122 1122 112/22

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जिसको भी चाहा मुहब्बत में हमारा न हुआ

दिल हमारा किसी सूरत भी गवारा न हुआ //1



मेरे क़िरदार में पाने की लियाक़त नहीं थी 

मुझपे जो फैज इनायत का दुबारा न हुआ //2



आज फिर बाम पे छाई थी अमावस काली 

आज फिर बिन्ते अशीयत का नज़ारा न हुआ //3



है जईफी तो सताती है हमें तन्हाई 

जब जवाँ थे तो मुहब्बत का इशारा न हुआ //4



मौजें उठतीं है मगर रोक लेता है…

Continue

Added by राज़ नवादवी on October 14, 2018 at 10:00am — 8 Comments

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