भाव की हर बांसुरी में
भर गया है कौन पारा ?
देखता हूं
दर-बदर जब
सांझ की
उस धूप को
कुछ मचलती
कामना हित
हेय घोषित
रूप को
सोचता हूं क्या नहीं था
वह इन्हीं का चांद-तारा ?
बौखती इन
पीढि़यों के
इस घुटे
संसार पर
मोद करता
नामवर वह
कौन अपनी
हार पर
शील शारद के अरों को
ऐंठती यह कौन धारा ?
इक जरा सी
आह…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on November 30, 2013 at 1:30pm — 34 Comments
सारथी, अब रुको
ये जुए खोल दो
बस इसी ठांव तक
था नाता तेरा
पथ यहां से अगम
विघ्न होंगे चरम
बस इसी गांव तक
था अहाता तेरा
कर्म तरणी सखे
पार ले चल मुझे
सत्य साथी मेरे
धर्म त्राता मेरा
होम होना नियम
टूटने दे भरम
नीर नीरव धरा
क्षीर दाता मेरा
जा तुझे है शपथ
कर न मुझको विपथ
फिर मिलूंगा तुझे
है वादा मेरा
(मौलिक एवं…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on November 27, 2013 at 12:33pm — 19 Comments
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