जबहो जुनून सवार मिस्लेअस्प सर में
तब की फर्क पैंदा आबेहयातओज़हर में
खुदाभी यही कहता है लौट आओ पास
कितना सुकून है बैठे बैठे अपने घर में
कितने तज़ब्जुब से भरा है सफरेज़ीस्त
कोई कल्ब ज्यूँ भटकताहो राहगुज़र में
दुनियामें कुछ नहींहै दीदनी दिखावा है
तमाम तिलिस्मात बस भरे हैं नज़र में
तमाम दुनियामें जो महसूस करे तन्हा
समूची कायनात समाई है उस बशर में
कम लोग जाने हैं तामीरेखल्कका…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 4:00pm — 3 Comments
ओबीओ के मित्र जनाब अलबेला खत्री साहेब ने एक शेर मुझसे फर्माया वो ये कि- ‘सबकुछ है इस जहान में तन्हाई नहीं है, अफ़सोस की है बात कि शनासाई नहीं है’
इस शेर से मुतास्सिर होके ये पूरी गज़ल लिखी गई है, पेश कर रहा हूँ, मुलाहिजा फरमाइए:
तू नहीं है जिन्दगी में तो लुत्फेतन्हाई भी नहीं है
ये यूँ हैकि आग लगाई नहीं तो बुझाई भी नहीं है
ठहरा ठहरा है दरख्तों पे शामका इक तवील साया
शब लिखनेवालेके कलममें जैसे रोशनाईभी नहीं है…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 2:55pm — 3 Comments
तुमको चाहा हमने तो मायूसी मिली
और न पाया तुझे तो जिन्दगी मिली
गले मिल के साथ साथ दोनों रोते थे
कल रात मेरे दुखोंसे जब खुशी मिली
आह तेरा दीद अश्कसे सूखी आँखोंको
समा न पाए जो इतनी रौशनी मिली
दामानेयार की सबा से मरनेवालों को
साअतेमर्ग दो पल की जिन्दगी मिली
कलशब कोई आधीरात कहके रोताथा
वफ़ा नीमशबहै मिली पे अधूरी मिली
नसीब देताहै पर क्या ये बात दीगरहै
दिल की लगी चाही पे…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:58pm — 1 Comment
ज़िंदगी गुज़र न जाए कहीं सवालों में
कि ज़रा शराबभी ढालो रखे प्यालों में
तमन्ना है कि अवाम का कहलाऊं मैं
नाम लिया न जाए फक़त मिसालों में
कहींतो कोई बात कुछ गलत लगतीहै
तफरका क्यूँ हुआ है तेरेमेरे हवालों में
भूख मिटाए ये ताकत नहीं निवालोंमें
आह ये बच्चे गड्ढे हैं जिनके गालोंमें
गुबारेख्वाब फूट जाता है ऊँचा हो कर
मंसूबे हमनेभी बाँधे थे कई ख्यालों में
सुनाहै दमेमर्ग नाबीनाभी देख…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:21pm — 1 Comment
सबों से दिल की मुश्किलों का सबब क्या कहिए
मगर जब अपनेही पूछें येसवाल तब क्या कहिए
वक्त क्यूँ ढाता है मासूमों पर गजब क्या कहिए
कहाँ जाती है नेकी -ए-कायनात अब क्या कहिए
रूठकर खो गई जो अज्दाहामे फिक्रेदौराँ में कभी
होती है अबभी उन निगाहोंकी तलब क्या कहिए
बहुत एहतियात से हुस्न की नजाकत संभालिए
रहिए फिक्रमंद कि तबक्या और अबक्या…
Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:11am — 5 Comments
दो घूँट पिला दे साकी तो कोई बात बने
तेरे गेसुओं से बुन के आज की रात बने
दो किनारे हैं समंदरके कहाँ मिल पाते हैं
कोई सूरत कमरओमेहरकी मुलाक़ात बने
आओ कर लें दुआ इन्केलाबे तगय्युर की
अज़- सरे- नौ अब आईन्दा कायनात बने
गर तेरी निगाह है बादा तो दुआ करता हूँ
देखने वालों के सीने में एक खराबात बने
ख़्वाब कामिलहो, मनचाही…
Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:07am — 2 Comments
अब और जी के जहाँमें क्या कर लेंगे
चलो हम आलमेबालामें नया घर लेंगे
ये कहाँ आ गए, किस मोड़पे हो तुम
मंजिल नहीं हो तो क्यूँ राहगुज़र लेंगे
न जाओ तुम मेरी बेफ़िक्रीओमस्ती पे
होश खो दोगे कभू हम जो संवर लेंगे
इन परीरूओं के दामसे बच कर रहना
इक हंसी देंगे तो बदले में जिगर लेंगे
सब्र करिए कि सब्र का फल मीठा है
लेंगे…
Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:04am — 1 Comment
मकते का शेर दरअसल इस बात के पसेमंज़र कहा गया है कि मेरे ख्यालों की उड़ान, मेरे मिजाजोतबीयत की रुझान और मेरी मआशी (आजीविका से जुडी) ज़िंदगी में कोई मेल नहीं है और मैं अक्सरहा खुद को गलत जगह पाता हूँ.
खुदा के बंदे हैं खुदा के बन्दों से क्यूँ डरें
आओ प्यारसे एक दूसरेको बाहोंमें भरलें
अगर तुम मिल जाओ किसी साअत मुझे
सुबहें भी बस थमी रहें, शामें भी ना ढलें
ज़मानेको कहाँ नसीब मेरे ख्यालोंकी…
Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:03am — 2 Comments
कोई हसीन नज़ारा नज़र को चाहिए
बसएक दरीचा दीवारोदर को चाहिए
लो फ़ैल गई किसी जंगलकी आगसी
अफवाहों की तेज़ी खबर को चाहिए
थोड़ी ज़मीन और थोड़ा आबो रौशनी
बस यही दौलत बेखेशज़र को चाहिए
दो जामा एक चारपाई माथे पर छत
और दो जूनकी रोटी बशरको चाहिए
क्यूँ दिल को तेरा ख़याल हर साअत
और तेरे मूका दीदार नज़रको चाहिए
तेरी…
Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:00am — 2 Comments
ना करो कोई तफरका लड़के और लड़की में
तुख्मेखल्क बराबर है औरत और आदमी में
जो तुम मार डालोगे अपनीही कोखका जना
तोफिर क्या फर्क रहेगा इंसान और वहशीमें
बेटियाँ तो गुलपाश हैं गुलिस्ताने कुनबा की
फैलतीहैं ये बनके मुश्केबू हज़ार ज़िन्दगी में
ए ज़हालतमें भटकेहुए बिरादर संभल जाओ
तारीकीएतआस्सुबसे निकल आओ रौशनी में
बेटेतो बड़े होके बसा लेते हैं अपना घोंसला
बेटियाँ पोछतीहैं आपके आंसूं खुशीओगमीमें
न होती मरियम तो कहाँ होते…
Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 11:57pm — 2 Comments
ज़माने भर की सताइश भी बहुत कम है
जोतेरे दहनपे मेरी तारीफ़का एक ख़म है
इक मुहब्बतथी जावेदां वोभी नहीं नसीब
इस आलमे फना में क्या दूसरा अलम है
कहानी नई नहीं अजअज़ल यही दास्ताँहै
दिल है तो दर्द है, मुहब्बत है तो गम है
आओ बताएं क्याक्या है बागेमुहब्बत में
जुल्म है ज़ोर है ज़ब्र है जफा है सितम है
ज़िंदगी एकसी है दर्द एक इन्केशाफ एक
आँखों को जैसे अश्क गुलों को शबनम है
ये कायनात कोई ख्वाब बीदा परीज़ादी है …
Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 11:54pm — 2 Comments
कब तलक यूँ ही गली-गली में सताई जाएँगी बेटियाँ
कभी ज़हेज़ तोकभी इज्ज़तको जलाई जाएँगी बेटियाँ
कब तलक दुल्हन बननेके लिए गैरतके खरीदारों को
सजा-धजाके किसी खिलौनेसी दिखाई जाएँगी बेटियाँ
माँ बहन बीवी और बेटी सभी हैं आखिरशतो बेटियाँ
फिर क्यूँ कब्रसे पहले हमल में सुलाई जाएँगी बेटियाँ
खुदा भी क्या सोचता होगा आलमेअर्श में बैठा- बैठा
अगले खल्कमें सिर्फ और सिर्फ बनाई जाएँगी बेटियाँ
अगर यूँ ही बेटियों को तआस्सुब से देखा जाएगा तो …
Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 11:50pm — 2 Comments
बहुत कुछ हमने पढ़ा है किताबों में
ज़िंदगी मगर नहीं समातीहै बाबों में
इत्मीनान हुए तो बेचैन हो उठे हम
सुकूंकी आदत होगई है इज्तेराबों में
बेपर्दा हुएतो पहचान न पाए तुमको
जोभी देखाहै वो देखा है हिजाबों में
तुम गएतो खराबातेइश्क उजड़ गया
नशा अब कहाँ बाकी रहा शराबों में
कारिज़ थे जो तेरे होगए हैं कर्ज़दार
न जाने चूक कहाँ होगई हिसाबों में
हमें धोखामिला उनसे जोथे मोतेबर
तुम सबात…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 9:00pm — 7 Comments
भोपाल की इक सुबह...
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भोपाल की इक सुबह...जून का महीना और गर्मी का तेवर चढ़ा हुआ. किसी महानगर सी हलचल का कोई निशाँ नहीं. हाँ, इक छोटे, अलसाए से कस्बे के जीवन की मद्धम धड़कन की अंतर्ध्वनि कानों में आहिस्ता गूंजती, जैसे खामोशी अगर कभी बोलती तो यूँ बोलती. लताएं हल्के हलके अंदाज़ में सुस्त हवाओं के ताल पे डोलतीं, सडकों पे बेज़ार कुत्ते इधर उधर मुंह मारते, रुपहली धूप के गर्म होते साये मकानों पे फैलते- भोपाल की ये तस्वीर अद्भुत है. लोग कब घरों से निकल के दफ्तर…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 6:13pm — 2 Comments
महीनों बाद भोपाल के घर में बैठा एकांतप्रस्थ मेरा मन.....
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शाम इक दुल्हन की तरह सजी संवरी महक रही है. डूबते सूरज की लालिमा के घूंघट ने उसे और भी युवा बना दिया है, पीतवर्णी क्षितिज जैसे उसकी सुडौल बाहें हैं, सारी धरा इस दुल्हन की सौम्य काया, नीड़ों को लौटते पक्षियों का कलरव जैसे दुल्हन के आभूषणों की कर्णप्रिय ध्वनियाँ हैं, कोयल की आवाज़, जैसे दुल्हन की पाजेब की खनक. अस्तमान सूर्य के अर्धचन्द्राकार वलय से विकीर्ण…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 6:10pm — 2 Comments
दिन किसी पैसेंजर ट्रेन की तरह है...
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दिन किसी पैसेंजर ट्रेन की तरह है जिसपे हर सुबह हम सवार हो जाते हैं. रोज़ का बंधा बंधाया सफर सुब्ह से शाम तक का और फिर वापिस अपने अपने घरों में. सुबह की निकली ट्रेन दोपहर के स्टेशन आ चुकी है, कुछ थकी थकाई, सांसे थोड़ी ऊपर नीचे, चेहरे पे सफर की धूल और आँखों में रुकते-दौड़ते रहने की थकान. लोग अपने अपने मुकामों के प्लेटफोर्म पे उतर कर न जाने क्या ढूँढते रहते हैं, क्या कदो-काविश (भाग-दौड़) है, क्या कारोआमाल…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 6:00pm — No Comments
हज़ार जिगर को तेरे मिलने की चाहत हो
काम क्या बने जब न अपनी किस्मत हो
मैंने अक्सरहा रोटी और कपड़ों से पूछा है
ज़रूरतोंके दाफिएके लिए कितनी दौलतहो
क्यूँ अभीसे ही तू सूफियाना हुआ जाता है
ऐ दिल तुझे कोई ख्वाहिश कोई हसरत हो
हसरतों को लूटकर करते हो मिजाजपुरसी
दुआ है तुझेभी जूनूँ हो दर्द हो मुहब्बत हो
लो ऐलान करदिया कि आगए हैं बाज़ारमें
ज़िंदगी तवाइफ़ है मेरी, अबतो इनायत हो
ज़िंदगी भर रहे…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 5:26pm — 4 Comments
जिन्दगी है उलझी तेरे तुर्रा -ए-तर्रार की तरह
और इतनी साफ़ कि पढ़लो अखबार की तरह
एहसासेतवाफ़ेरोजोशब ये सोना- जागना अपना
भटकते हैं दर- दर तम्सीलके किरदारकी तरह
आना ही था तो आ जाता जैसे नींद रातों को
तू ज़िंदगीमें क्यूँ आया फ़स्लेबेइख्तेयारकी तरह
तुझसे बिछड़नाभी हो गोया कोई कारेखुदकुशी
और तुझसे इश्क निभानाभी वस्लेनारकी तरह
दर्दकी दास्ताँ रहगई खतोंकी तहरीर की तरह
प्यार हमारा टूट गया मुंहबोले इकरारकी…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 5:06pm — 6 Comments
कुछ बातों की कोई इम्तेहा नहीं होती
होती है बस, कमोबेश वफ़ा नहीं होती
करो बहबूदीकी तमन्ना और भूलजाओ
जिसमें हो एहसान वो दुआ नहीं होती
माँ माँ होतीहै लहुलुहान होकर भी माँ
बच्चोंके लिए कभी आब्लापा नहींहोती
गरीबों केलिए ज़्यादा गिज़ा नहीं होती
अमीरों केलिए भूखकी दवा नहीं होती
अगर न होती भूल आदमोहव्वा से तो
रंगभरी और दुःखभरी दुनिया नहींहोती
काश कि औरत न होती रागिबेपैदाइश
और…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 5:00pm — 3 Comments
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