22 22 22 22
मोम नहीं जो दिल पत्थर है
उसका चर्चा क्यों घर-घर है?
मंजिल को पा लेता है वो
जिसने साधी खूब डगर है
लोग पुराने बात पुरानी
फिर भी उनका आज असर है
देख! सँभलना उसने सीखा
जिसने भी खायी ठोकर है
होठों पर मुस्कान भले हो
दिल में गम का इक सागर है
माना सच होता है कड़वा
'राणा' कहता ख़ूब मगर है
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on December 16, 2017 at 8:00pm —
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राजमार्ग का एक हिस्सा(लघुकथा)
भारी गाड़ियों के आवागमन से कम्पित होता,तो कभी हल्की गाड़ियों के गुजरने से सरर्सराहट महसूस करता हूँ। घोर कुहरे में इंसानों की दृष्टि जवाब दे जाती है, मगर मैं दूर से ही दुर्घटना की संभावना को भांपकर सिहर उठता हूँ।
देखता हूँ नई उम्र को मोटरसाइकिलों पर करतब करते निकलते हुए। बेपरवाही जिसके शौंक में शामिल है।
हाल ही की तो बात है,ऐसा करते हुए उस किशोर की बाइक गिर कर कचरा हो गई थी। पीछे से आते ट्रक ने दल दिया था उसे। मेरा काला शख्त सीना…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 30, 2017 at 11:42pm —
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तालिका छंद
सगण सगण(112 112)
दो-दो चरण तुकांत
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दिन रात चलें
हम साथ चलें
सह नाथ रहें
सुख दर्द सहें
बिन बात कभी
झगड़े न सभी
मन प्रेम भरें
हरि कष्ट हरें
शुभ काम करो
तब नाम करो
सब वैर तजो
हरि नाम भजो
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 12, 2017 at 7:43am —
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2122 1212 22/112
उनका बस इन्तिज़ार अच्छा था
यार मैं बे क़रार अच्छा था
गम रहा जो क़रीब दिल के बहुत
वो ख़ुशी से हज़ार अच्छा था
कौन कातिल था देख पाया नहीं
तेज़ नजरों का वार अच्छा था
मेरी उम्मीद तो रही कायम
तेरा झूठा ही प्यार अच्छा था
सौदा दिल का किया हमेशा ही
उनका वो रोज़गार अच्छा था
देख कर जीत की खुशी उनकी
हारना उनसे यार अच्छा था
खीझ कर माँ पसीजना तेरा
मार पर वो दुलार अच्छा…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 9, 2017 at 10:13pm —
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तरही गजल
2122 1212 22
बिन किसी बात रूठ जाने का
क्या करें उनके इस बहाने का?
चैन मिलता है जिसको गम देकर
छोड़ता मौका कब सताने का।
ज्यों क़दम आपके पड़े तो लगा
*बख़्त जागा ग़रीब खाने का*।
जह्र देकर मिज़ाज पूछ रहे
देखो अंदाज आजमाने का।
यूँ भी दीपक कोई जले यारो
हक मिले सबको मुस्कुराने का।
मैल दिल से नहीं गया तो बोल
फाइदा ही क्या आने जाने का
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 5, 2017 at 10:00pm —
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122 122 122 122
न तकरार समझी न समझा गिला है
बुरी आदतों का यही फाइदा है
गलत ही तलाशा था मय में नशे को
निगाहों में जबके नशा ही नशा है
न अल्फाज कुछ भी बयां कर सकें हों
जो दिल में बसा आँखों से दिख रहा है
ये चेहरे पे रौनक न जाने है कैसे
जिगर जबकि छलनी हमारा हुआ है
किसी तिफ्ल के रूठ जाने से सीखें
भुलाना किसी को अगर सीखना है
बना लो मुहब्बत को औजार यारो!
शज़र नफरतों के अगर काटना है
क़मर पे चढ़ी जा…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on October 16, 2017 at 10:30pm —
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1222 1222 122
कभी जिसमें कहीं अड़चन नहीं है
हो कुछ भी वो मग़र जीवन नहीं है
तराशा जाए तो पत्थर भी चमके
तपाए बिन कोई कुंदन नहीं है
बिना उलझे नहीं आता सुलझना
मज़ा ही क्या अगर उलझन नहीं है
अगर हैं जीतने की ख़्वाहिशें तो
न सोचो हारने का मन नहीं है
बहारें हर तरफ़ आने लगी हैं
खिला इक बस मेरा गुलशन नहीं है
नहीं अनबन, नहीं शिकवा ही कोई
*बस इतना है कि अब वो मन नहीं है*
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on October 11, 2017 at 11:30pm —
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*बचपन*
न समंदर-सा गहरा,न पर्वत-सा ऊँचा
न ही लताओं-सा उलझा
जटिल तो हो ही नहीं सकता है
बचपन
क्योंकि बड़ा सादा-सा होता है
बचपन
बड़ा सीधा-सा होता है
बचपन
खुली उन्मक्त हवा-सा बहता है
करता है अठखेलियां
विभिन्न पत्तियों से
टहनियों से
कभी-कभी हिला देता है
वृक्ष को भी जड़ तक
क्योंकि बहती हवा-से
बचपन का विवेक इतना ही
होता…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on October 8, 2017 at 10:37pm —
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122 122 122 12
उन्हें देखकर ये बदलने लगा
नहीं टिक सका दिल फिसलने लगा
नदी से मिलन की घड़ी आ गयी
*समन्दर खुशी से मचलने लगा*
जमाने से मिलती रही ठोकरें
उन्हीं की बदौलत सँभलने लगा
लगा संग दिल ही था जो अब तलक
वो किलकारियों से पिघलने लगा
पड़ोसी लगाता रहा आग जो
वही आज खुद देखो जलने लगा
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on September 24, 2017 at 6:46am —
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1222 1222 122
.
नही हमको जो भाता क्यों करें हम
कोई झूठा बहाना क्यों करें हम
हमीं से रौशनी है चार सू जब
तो बुझने का इरादा क्यूँ करें हम
खमोशी की सदा अक्सर सुनी है
न सुनने का बहाना क्यूँ करें हम
भरोसा जब नहीं खुद पे हमें ही
*वफ़ादारी का दावा क्यूँ करें हम*
हो झगड़ा आपसी सुलझाएँ खुद ही
ज़माने में तमाशा क्यों करें हम
न होता झूठ का कोई ठिकाना
फिर उसको ही तराशा क्यूँ करें हम
मौलिक…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on September 19, 2017 at 6:00am —
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2122 1212 22/(112)
साथी उससे कोई खरा न हुआ
साथ गम ने दिया जुदा न हुआ
रोकती बस रही रज़ा तेरी
हमने चाहा बुरा,बुरा न हुआ
छल कपट से रहा कमाता जिसे
जऱ यूँ ही बह गया तेरा न हुआ
बस बनावट भरा लगा रिश्ता
जिसमें कोई कभी खफ़ा न हुआ
डोर दिल की बँधी रही जिससे
दूर है वह मग़र जुदा न हुआ
जिंदगी को सही समझ न सके
मुश्किलों से जो सामना न हुआ
बंद आँखों ने जो किया दीदार
आँखें खोली वो देखना न…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on September 3, 2017 at 8:00am —
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गजल
बह्र 1222 1222 122
फरेबी तू जो बन पाया नहीं है
तभी सिक्का तेरा चलता नहीं है
नहीं नीयत में ही जब काम करना
कहे क्यों तू, मिला मौका नहीं है
ज़ुबाँ में सादगी उसकी झलकती
भले देहात में रहता नहीं है
जिया था तू वतन के वास्ते पर
शहादत का तेरी चर्चा नहीं है
सरे बाज़ार देखो झूठ बिकता
जो' बिक जाए वो' फिर सच्चा नहीं है
लिखी तकदीर हाथों से ही जाती
लकीरों में तो कुछ रक्खा नहीं है
मौलिक एवं…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on August 6, 2017 at 12:30pm —
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बह्र:1222 1222 122
नहीं पहले-सी चेहरे पे चमक है
हँसी में आपकी गम की झलक है
नहीँ आमाल में जिसकी है नीयत
उसी की क़ामयाबी पे भी शक है
कोई तो खेल में पानी बहाता
कहीं पर प्यासा मरने की धमक है
पहुँचना उसका ही होगा फलक तक
नज़र जिसकी बहुत आगे तलक है
रहेगी रात तन्हा, दिन अकेला
हमारा साथ कुछ ही देर तक है
उसे बंदिश भला क्या रोक पाए?
नजर में जिसकी ये सारा फलक है
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on August 6, 2017 at 11:00am —
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सारे दादुर मोर खुश ,सावन जो घिर आय।
कारे बादल जलभरे ,नभ में जाते छाय।
नभ में जाते छाय, प्यास धरती की हरते।
नीर सुधा बरसाय,सुहागन इसको करते।
सतविन्दर कविराय, लगाओ पौधे प्यारे
मिट्टी उगले अन्न,सुखी हों प्राणी सारे।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on August 2, 2017 at 8:30pm —
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*वीर चेतक*(वीर छ्न्द)
घोड़े देखे बहुत जगत में,देखा कब चेतक-सा वीर
बिजली-सी चुस्ती थी जिसमें लेकिन रहता रण में धीर
कद था छोटा ही उसका पर,लम्बा उसका बहुत शरीर
मारवाड़ की अश्व-नस्ल में राणा ने पाया वह बीर
हल्दी घाटी समर क्षेत्र में,राणा उसपे रहे सवार
चेतक मुख पर सूंड लगाए,गज पर करता चढ़-चढ़ वार
राणा का भाला चलता था,संग चली टापों की मार
आगे-पीछे हटता चेतक,दिखती रण कौशल में धार
हल्दी घाटी…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on June 8, 2017 at 8:30pm —
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(आधार बह्र ए मेरे)
रात चाँदनी और ये तारे
नहीं सुहाते बिना तुम्हारे-2
साथ रहो तुम तब है होली
तुम्ही नहीं जो फिर तो हो ली
तुमसे जीवन में सारे रंग
तुम बिन जीवन ही है बे रंग
गम का दरिया तर जाता है
तुम रहते जब साथ हमारे।
झूम-झूम कर आता सावन
लेकिन प्यासा तरसे जीवन
विरह काल में बूंदें गिर कर
चलें जलाती मेरा तन-मन
साथ तुम्हारा नहीं अगर तो
सभी फुहारें हैं अंगारे।
जले जेठ-सा जाड़ा तुम…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on June 4, 2017 at 3:30pm —
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जग कर रमलू जी जपें,राम नाम के बोल
कुल्ला करने के लिए,नल देते हैं खोल
नल देते हैं खोल,भूल गए बन्द करना
जल बहता है व्यर्थ,उन्हें क्यों इससे डरना
सतविन्दर कविराय,टैंक ने लिया उन्हें ठग
साबुन चिपकी गात,हाथ में है खाली जग
बात पते की एक है,सुन लो! मेरे पास
कुछ भी तब भाता नहीं,दिल हो अगर उदास
दिल हो अगर उदास,जहाँ की खुशियाँ सारी
देती दुख ही हाय!, बनीं कंटक की डारी
सतविन्दर कविराय,उठाओ दुख का ढाबा
दिन जीवन के चार,ख़ुशी से काटो…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on May 25, 2017 at 11:30pm —
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1222 1222 1222 1222
किसी मरते को जीने का वहाँ अधिकार हो जाए
अगर सहरा में पानी का ज़रा दीदार हो जाए
ये गिरना भी सबक कोई सँभलने के लिए होगा
मिलेगी कामयाबी हौंसला हर बार हो जाए
वफ़ा करके नहीं मिलती वफ़ा सबको यहाँ यारो
किसी की जीत उल्फत में,किसी की हार जाए
कि खुलकर आज कह डालो दबी है बात जो दिल में
*बुरा क्या है हकीकत का अगर इज़हार हो जाए*
खमोशी को हमेशा ही समझते हो क्यों कमजोरी?
यही गर्दिश में इंसाँ का बड़ा औज़ार हो…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on May 22, 2017 at 9:00am —
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एक हांडी दो पेट(लघुकथा)
हाई स्कूल के बाद, उसके आगे न पढ़ने के ऐलान करने पर माँ ने जोर देते हुए कहा,"बेटा!बिना पढ़ाई के आज कोई इज्जत नहीं है।तुझे यह कितनी बार समझाऊँ?"
पिता ने जोड़ा,"ठीक कह रही है तेरी माँ।"
वह झल्ला कर बोली,"माँ,बापू मेरे बस का नहीं है पढ़ना।ज्यादा धक्का ना करो।क्या कर लूँगी पढ़ के मैं?"
पिता बोले,"पढ़-लिख जावेगी तो अपने पैरों पर खड़ी हो सकेगी।किसी की तरफ देखना न पड़ेगा।जिंदगी में तेरे काम आवेगी पढ़ाई।"
"अच्छा!",उसने मुँह बनाया।
"बेटा!मैं ना पढ़…
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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on May 14, 2017 at 8:00pm —
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(16 मात्राएँ)
कर्म करें तो बढ़ते सारे
बिना किये किस्मत भी हारे
रात चाँदनी और ये तारे
नहीं सुहाते बिना तुम्हारे
मजहब क्या दीवार है कोई
लिख डाले जो इतने नारे
रात अँधेरी से क्या डरना
हैं उम्मीदों के उजियारे
बीच भँवर में जीवन नैया
डोल रही,हैं दूर किनारे
खींचेगी फूलों की खुशबू
चलो देख कर काँटे प्यारे।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on May 7, 2017 at 8:03am —
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