For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ज़िंदगी का रंग फीका था मगर इतना न था

ज़िंदगी का रंग फीका था मगर इतना न था

इश्क़ में पहले भी उलझा था मगर इतना न था

 

क्या पता था लौटकर वापस नहीं आएगा वो

इससे पहले भी तो रूठा था मगर इतना न था

 

दिन में दिन को रात कहने का सलीका देखिये

आदमी पहले भी झूठा था मगर इतना न था

 

अब तो मुश्किल हो गया दीदार भी करना तिरा

पहले भी मिलने पे पहरा था मगर इतना न था

 

उसकी यादों के सहारे कट रही है ज़िंदगी

भीड़ में पहले भी तन्हा था मगर इतना न था

 

टुकड़ा टुकड़ा हो गया है ज़िंदगी का आईना

इससे पहले भी मैं टूटा था मगर इतना न था

 

उसके जाने से बढ़ी 'सूरज' मेरी तिष्नालबी

प्यार के दरिया में प्यासा था मगर इतना न था

 

डॉ सूर्या बाली 'सूरज'

(मौलिक और अप्रकाशित)

Views: 953

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on November 18, 2015 at 11:24pm
बेहद उम्दा ग़ज़ल कही है आदरणीय
Comment by Ashok Kumar Raktale on November 18, 2015 at 7:11pm
क्या पता था लौटकर वापस नहीं आएगा वो
इससे पहले भी तो रूठा था मगर इतना न था...........वाह ! खूब कहा है. अब तो हम भी कुछ ऐसा ही कह रहे हैं.कोई पता न खबर है. डॉक्टर साहब हो कहाँ ?
बहुत खुबसूरत गजल कही है.बहुत मुबारकबाद कुबुलें.सादर.
Comment by Mahendra Kumar on November 18, 2015 at 11:02am
बेहतरीन!
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 17, 2015 at 11:43am

बड़ी ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है आरणीय सूर्या साहब। दिली दाद कुबूल करें।

Comment by Sushil Sarna on November 16, 2015 at 6:12pm

टुकड़ा टुकड़ा हो गया है ज़िंदगी का आईना
इससे पहले भी मैं टूटा था मगर इतना न था

उसके जाने से बढ़ी 'सूरज' मेरी तिष्नालबी
प्यार के दरिया में प्यासा था मगर इतना न था

वाह आदरणीय सूरज बाली जी वाह .... हर लफ्ज़ खूबसूरत अहसासों से लबरेज़ नज़र आता है ..... हर मिसरा कुछ बयां करता है .... दिलकश अशआर ,दिलकश अंदाज़ .... शे'र दर शे'र दिल से दाद कबूल फरमाएं आदरणीय।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 16, 2015 at 4:42pm

दिलसे दाद कुबूल करें आदरणीया सूर्या बालीजी. वाह वाह !

एक अरसे बाद आपको इन पन्नों में देखना रोमांचित कर रहा है !  विश्वास है, आपका ग़ज़लकार अब ज़ल्दी-ज़ल्दी आया करेगा. 

शुभ-शुभ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 16, 2015 at 4:18pm

दिन में दिन को रात कहने का सलीका देखिये

आदमी पहले भी झूठा था मगर इतना न था     --  आदरणीय सूर्या बाली जी , इस हासिले ग़ज़ल शे र के लिये और पूरी ग़ज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥

Comment by Ravi Shukla on November 16, 2015 at 2:51pm

आदरणीय डॉ सूर्या बाली 'सूरज' जी बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई है बधाई । शायद आपको पहली बार मंच पर पढ रहे है । बहुत अच्‍छा लगा

दिन में दिन को रात कहने का सलीका देखिये

आदमी पहले भी झूठा था मगर इतना न था     बहूत खूब बधाई ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 15, 2015 at 10:29pm

आदरणीय डॉ सूर्या बाली 'सूरज' जी बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद और मुबारकबाद कुबूल फरमाएं. 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184

परम आत्मीय स्वजन,ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 184 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का…See More
Monday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post "मुसाफ़िर" हूँ मैं तो ठहर जाऊँ कैसे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। विस्तृत टिप्पणी से उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार।"
Monday
Chetan Prakash and Dayaram Methani are now friends
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-179
""ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-179 को सफल बनाने के लिए सभी सहभागियों का हार्दिक धन्यवाद।…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-179
""ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-179 को सफल बनाने के लिए सभी सहभागियों का हार्दिक धन्यवाद।…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-179
"आदरणीय जयहिंद रायपुरी जी, प्रदत्त विषय पर आपने बहुत बढ़िया प्रस्तुति का प्रयास किया है। इस…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-179
"आ. भाई जयहिंद जी, सादर अभिवादन। अच्छी रचना हुई है। हार्दिक बधाई।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-179
"बुझा दीप आँधी हमें मत डरा तू नहीं एक भी अब तमस की सुनेंगे"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-179
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल पर विस्तृत और मार्गदर्शक टिप्पणी के लिए आभार // कहो आँधियों…"
Sunday
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-179
"कुंडलिया  उजाला गया फैल है,देश में चहुँ ओर अंधे सभी मिलजुल के,खूब मचाएं शोर खूब मचाएं शोर,…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-179
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद। सादर।"
Saturday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-179
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी आपने प्रदत्त विषय पर बहुत बढ़िया गजल कही है। गजल के प्रत्येक शेर पर हार्दिक…"
Saturday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service