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बत्तियाँ सारी बुझा कर द्वार पर साँकल चढ़ा कर
मस्त वो अपनी ही धुन में मुझको मुझसे ही चुरा कर
साँस हर मदहोश करती हाथ में खुशबू बची बस
फूल सब मुरझा चुके हैं राह में काँटे बिछा कर
क्या उसे एहसास भी है उस सुलगती सी तपिश का
जिस सुलगती राख में वो चल दिया मुझको दबा कर
सींच कर अपने लहू से ख्वाब की मिट्टी पे मिलजुल
जो लिखी थी दास्तां वो क्यों गया उसको मिटा कर
मेरी पलकों पर सजाए उसने ही सपने सुनहरे
जब कहा क्या सच करें? वो हँस दिया मुझको रुला कर
चूम ले वो आसमाँ ये ही दुआ माँगी हमेशा
क्या पता था यों उड़ेगा घोंसला अपना भुला कर ?
चाहे अब जितना पुकारूँ वो न मुझको सुन सकेगा
व्यर्थ अब करना प्रतीक्षा आस का दीपक जला कर
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आ0 प्राची बहन इस गजल के लिए बधाई ।
हौसला अफजाई के लिए आप सभी का तहे दिल से आभार.
ग़ज़ल शिल्प की कुछ और बारीकियों को बताने के लिए आ० सौरभ जी का धन्यवाद
सादर
आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी, बहुत सुन्दर गजल हुई है बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीया डॉ. साहिबा ,फ़ूल सब मुरझा चुके हैं ,शानदार खुबसूरत ........तहेदिल से स्वागत |
वाह बेह्तरीन भाव संपदा . आ० सौरभ जी का कथन मेरे जैसे नौसिखिये गजल कशिशकार के लिए भी एक शिक्षा है . सादर .
बत्तियाँ सारी बुझा कर द्वार पर साँकल चढ़ा कर
मस्त वो अपनी ही धुन में मुझको मुझसे ही चुरा कर........... सानी के वो को है करना अधिक उचित होगा. यही इस मिसरे की व्याकरणजन्य माँग है.
साँस हर मदहोश करती हाथ में खुशबू बची बस
फूल सब मुरझा चुके हैं राह में काँटे बिछा कर........
साँस हर मदहोश करती .. यह भाषा की दृष्टि से बहुत बढिया प्रयोग नहीं है. ’खुश्बू बची बस’ भी उला मिसरा के गठन को चुनौती दे रहा है.
क्या उसे एहसास भी है उस सुलगती सी तपिश का
जिस सुलगती राख में वो चल दिया मुझको दबा कर.......
अच्छा खासा मिसरा बन रहा है - उस सुलगती सी तपिश का क्या उसे एहसास भी है ? इसे उलट-पलट देना समझ में नहीं आया .. :-))
विश्वास है, आप समझ रही होंगी कि शेर के मिसरे गेय कविताओं के मिसरे की तरह नहीं बाँधे जाते. इसी कारण अच्छे कवि अच्छे ग़ज़लकार नहीं बन पाते. :-)))
मेरी पलकों पर सजाए उसने ही सपने सुनहरे
जब कहा क्या सच करें? वो हँस दिया मुझको रुला कर
इसी तरह से इस शेर के उला को भी दुरुस्त कर लें - उसने ही सपने सुनहरे मेरी पलकों पर सजाए .. यह कितना स्पष्ट सार्थक वाक्य बन गया !
चूम ले वो आसमाँ ये ही दुआ माँगी हमेशा
क्या पता था यों उड़ेगा घोंसला अपना भुला कर ? ..
वाह !
यही हाल इस मिसरे का है - चाहे अब जितना पुकारूँ वो न मुझको सुन सकेगा
इसे वो न मुझको सुन सकेगा चाहे अब जितना पुकारूँ कर लेना श्रेयस्कर होगा.
वैसे, ग़ज़लों के लिए आवश्यक अन्य तत्त्व कथ्य और खयाल आपकी परेशानी है ही नहीं.
प्रयास हेतु हार्दिक शुभकामनाएँ
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बत्तियाँ सारी बुझा कर द्वार पर साँकल चढ़ा कर
मस्त वो अपनी ही धुन में मुझको मुझसे ही चुरा कर..............ये मतला अपने आप में पूरी ग़ज़ल है... या पूरा सुखन है.
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क्या उसे एहसास भी है उस सुलगती सी तपिश का
जिस सुलगती राख में वो चल दिया मुझको दबा कर.....रोंगटे खड़े हो गए हैं ..
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मेरी पलकों पर सजाए उसने ही सपने सुनहरे
जब कहा क्या सच करें? वो हँस दिया मुझको रुला कर...वाह वाह
काश ऐसे प्रयास हम से रोज़ हो सकें ...
बधाई
वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्हआदरणीया लाजवाब सृजन के लिए बधाई
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