For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

विश्व पुस्तक मेला-2015

मेट्रो की घड़घड़ाहट
और ज़िंदगी की फड़फड़ाहट के बीच
कुछ शब्द उभरकर आते हैं
जब-
वरिष्ठ नागरिकों के लिए
आरक्षित आसन पर
नए युग का प्रेमी युगल
चुहल करता है
और-
अतीत की झुर्रियों का फ़ेशियल लिए
लड़खड़ाती हड्डियों का
बेचारा ढाँचा
अवज्ञा की उंगली पकड़कर
अपने गौरवमय यौवन का
सौरभ लेता हुआ
कुछ पल के लिए खो जाता है;
मेट्रो की घड़घड़ाहट थमने लगती है
हड्डियों का ढाँचा
हड़बड़ाहट में चौकन्ना होता है,
उभरते हुए शब्दों को सुनता है,
फिर,
धूप-छाँव की तरह विलीन हो जाता है
ज़िंदगी के रेले में-
वह जा रहा है,
विश्व पुस्तक मेले में.

 

(2)

मंडी हाऊस से प्रगति मैदान तक
प्रगति की दौड़ में
हाँफती ज़िंदगी-
कार-ऑटो और बस की तीव्र गति के बीच
नए शब्द उभरते हैं,
हड्डियों का ढाँचा
उन्हें समझने की कोशिश में
एक युग बिता देता है.

(3)

अंतत:,
प्रगति मैदान –
गहरी चुप्पी और नि:शब्द शब्दों के बीच
कसमसाती ज़िंदगी-
पेड़ों से लटके बैनर,
खम्भों पर टँगे हुए पोस्टरों से
वे उम्मीदें लेकर झाँक रहे हैं
वे, जिन्हें हम
ऐसे ही किसी त्योहारी मौके पर
पोशाकी सम्भ्रम के विभ्रम में डाल देते हैं-
हिटलर से लेकर स्वामी विवेकानंद
कालिदास से लेकर दुश्यंत कुमार
वाणभट्ट से लेकर कल्पना चावला
या फिर
चाणक्य से लेकर नरेंद्र मोदी;
न जाने कितने अजस्र नाम
कितने जाने-अनजाने चेहरे-
हड्डियों का ढाँचा थक रहा है.
वह ध्यान से सुनता है
उन नि:शब्द शब्दों के गुंजन को
जिन्हें आत्मसात कर प्रशांति मिलती है;
उसके आसपास
डोसा-चाट-पित्ज़ा की चीख-पुकार लिए
एक बड़ा सा झमेला है,
फिर भी वह अकेला है-
यह विश्व पुस्तक मेला है
यह विश्व पुस्तक मेला है.
(मौलिक व अप्रकाशित रचना – नई दिल्ली 18.02.2015)

Views: 770

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 19, 2015 at 6:04pm
आदरणी शरदिंदु मुखर्जी जी, बहुत सजीव चित्र अंकित किया है आपने विश्व पुस्तक मेले का, बधाई.
पुस्तक मेले की गहरी चुप्पी और डोसा, चाट , पीजा के लिए चीख पुकार ,
यही दृश्य है पुस्तक मेले का ,
कई बार की स्मृतियाँ है, धूल , उदासी , टेंट , कब लगे , कब उजड़े , कब उखड़े, एक अजीब सा बिखरापन, भीड़ भी , खालीपन भी , मेला है पर कुछ अकेला है।
पर है एक खुशी, एक मान, की है, होता है, हर वर्ष , फरवरी माह में , विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली में, प्रगति मैदान में ,
सादर।
Comment by Pawan Kumar on February 19, 2015 at 1:50pm

आदरणीय
पुस्तक मेला का दृष्य मैने भी देख लिया
बहुत ही आकर्षक है
सादर बधाई!

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 19, 2015 at 1:43pm

आ० दादा

विश्व पुस्तक मेले ने आपको कितना प्रभावित किया वह इन कविताओं से स्पष्ट है i पहली कविता  में आरक्षित सीट होने पर भी उसका लाभ न ले पाने की पीडा तो है ही साथ ही काल प्रभावित शरीर से  भी पुस्तक मेले में जाने की उद्दाम जिजीविषा का मार्मिक चित्रण हुआ है  i दूसरी कविता में एक ठहरा हुआ जीवन (हड्डियों का ढांचा ) महानगर की द्रुतगामी जीवन शैली  पर हतप्रभ है और उसके मायने तलाश  करता है i तीसरी  कविता में विश्व पुस्तक मेला में बिखरी  हुई किताबो की छवि है पर क्या माहौल उस मेले के अनुरूप है , यह उस ढांचे के चिंतन का विषय है और फिर अंत में -

उसके आसपास
डोसा-चाट-पित्ज़ा की चीख-पुकार लिए
एक बड़ा सा झमेला है,
फिर भी वह अकेला है-

यह विश्व पुस्तक मेला है

निश्चय ही वह मेला और वह परिवेश धन्य है जिसने आपसे  एक नहीं तीन-तीन रचनाये लिखवाई i सादर i

Comment by khursheed khairadi on February 19, 2015 at 10:26am

आदरणीय शरदिंदु मुखर्जी साहब अच्छे समसामयिक बिम्ब है |बहुत बहुत बधाई दिनांक १७-२-२०१५ को मैं दिल्ली में था ,इण्डिया गेट से प्रगति मैदान तक पहुँचने की भरसक कोशिश के बावजूद नाकाम रहा ,शाम के वक़्त मेट्रो के रेले में हड्डियों का चूरमा बन गया ,हार थक कर वापस जोधपुर लौट आया |दिल्ली की डगर स्थानीय निवासी के सहयोग बिना बहुत कठिन है |सादर अभिनन्दन |

Comment by Hari Prakash Dubey on February 19, 2015 at 8:40am

आदरणीय शरदिंदु  जी , सुन्दर रचना ,हार्दिक बधाई आपको !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 18, 2015 at 11:21pm

आदरणीय शरदिंदु सर, संस्मरण को आपकी अनुभवी कलम से सुन्दर शब्द मिले और लाजवाब कविता हो गई. इस सुन्दर रचना पर हार्दिक बधाई निवेदित है. नमन 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 18, 2015 at 9:45pm

पुस्तक मेले तक के सफर और फिर अपने अनुभव से पूर्ण संस्मरण को काव्य का रूप देना बहुत अच्छा लगा, आदरणीय शरदिंदु सर जी. बधाई व् शुभकामनायें


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 18, 2015 at 7:42pm

वाह.... संस्मरण का  कविता की शक्ल में अनोखा अंदाज ..बहुत अच्छा लगा पढके ,हार्दिक बधाई आ० शरदिंदु जी 

Comment by somesh kumar on February 18, 2015 at 7:01pm

विश्व पुस्तक मेले का आप ने  अपने अनुभवों से बहुत साफ़ और स्पष्ट चित्र खिंचा है |अनुभवों को रचना के जरिए साँझा करने पर और एक रचना के रूप में स्थापित करने के लिए आभार |

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Sushil Sarna posted blog posts
Thursday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

देवता क्यों दोस्त होंगे फिर भला- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२ **** तीर्थ जाना  हो  गया है सैर जब भक्ति का यूँ भाव जाता तैर जब।१। * देवता…See More
Wednesday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
Nov 2
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
Nov 1
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Oct 31
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Oct 31
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
Oct 31
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
Oct 31

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service