"आज के अखबार में प्रतियोगी परीक्षा का परिणाम निकला है" जैसे ही हौस्टल में यह बात देवारती को पता चली, बेतहाशा दौड़ पड़ी लाईब्रेरी की ओर, अखबार उठा सारे रोलनंबर देखे, हर पंक्ति ऊपर से नीचे, दाएं से बाएँ, एक बार, दो बार, बार बार, पर उसका तो रोल नंबर ही नहीं था. उसके पैरों तले तो जैसे ज़मीन ही खिसक गयी. अपनी आखों पर यकीन नहीं हुआ, बुझे मन से भारी क़दमों से बाजार जा कर फिर से अखबार खरीदा, एक एक रोल नंबर पेन से काटा, कहीं उलट पलट जगह न छप गया हो. एक घंटा बीत गया, पर नहीं मिला उसका नंबर, बहुत रोई, चीख चीख कर बिलख बिलख कर, पूरे दिन बाहर भी नहीं निकली. आखिर पूरे साल कितनी तैयारी की थी उसने इस एक परीक्षा की,दीपावली पर तो घर भी नहीं गयी थी, और परीक्षा भी तो कितनी अच्छी हुई थी, सब प्रश्न आते थे उसे,फिर ये कैसे हो गया... उसे यकीन नहीं हो रहा था कि वो अनुत्तीर्ण हो गयी है. क्या जवाब देगी वो अपने मम्मी पापा को, कैसे फिर पूरा एक साल और तैयारी कर पाएगी, नहीं करनी उसे अभी शादी-वादी, और कैसे नज़रें मिलाएगी वो अपने गुरुजनों से....बस उलझ गयी थी वो एक यंत्रणा के जाल में....
अचानक कुछ आवाजें सुन, रात ग्यारह बजे उसने दरवाजा खोला तो पता चला कि अखबार में तो अधूरा रिजल्ट आया था,लेकिन अंतरजाल पर पूरा है, अब रात को कंप्यूटर कहाँ से लाये.....!
तरह तरह के सवाल चलते रहे रात भर, खुद से बातें, भगवान् से बातें, नींद कहाँ थी आखों में. कभी सोचती कि मैं इतनी खुशकिस्मत कहाँ कि मेरा रिजल्ट भी गलती से छपने से रह गया हो. आज तो रात भी कितनी लम्बी थी. पूरी रात बेसब्री से गुज़री. सुबह सुबह फिर अखबार खरीद लाई,पर उफ़! आज अखबार में रिजल्ट छपा ही नहीं था. बेसब्री से तैयार हो, कम्प्यूटर सेण्टर जाने लगी तो कई और लोगों नें भी अपना परिणाम जानने के लिए अपने रोल नबर थमा दिए.
कम्प्यूटर खोला, तो सर्वर डाउन, वो तो १० बजे ही औन होता है, बैचैनी बड़ती जा रही थी, आखिर नैट भी कनेक्ट हो गया, साईट भी खुल गयी. अब हिम्मत ही नहीं हो रही थी अपना नंबर फीड करने की, कहीं नहीं आया तो.... फिर उसने पहले एक एक कर सब सहेलियों के रोलनंबर डाले, पर एक दो तीन चार पूरी आठ सहेलियों का नहीं हुआ.....अब आख़िरी नंबर ही बचा था उसके हाथ में, उसका अपना रोल नंबर, जैसे ही फीड किया... स्क्रीन पर बड़ा सा कांग्रेचुलेशन लिखा आ गया. अरे! ये क्यों हो रहा है, मैंने नंबर तो ठीक डाला है न, एक बार फिर डाला, एक एक अक्षर देख कर डाला, फिर से वही स्क्रीन पर कांग्रेचुलेशन, उसे यकीन नहीं हुआ कि उसने परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है, वो खुशी से कांप उठी, पूरे बदन में रोंगटे खड़े करने वाली सिहरन, होठों से शब्द नहीं निकल रहे, कुछ समझ नहीं आ रहा था, यहाँ तक कि कम्प्यूटर कैसे बंद करते हैं यह भी समझ नहीं आ रहा था , हाथ पैर कांप रहे थे, आनंदातिरेक से, और आँखों से आंसू बह रहे थे.....
वो बाहर निकली तभी उसकी सबसे प्रिय सहेली इति मिली, वो उसके गले लग कर रोने लगी. इति घबरा गयी कि देवारती रो क्यों रही है, पर वो तो खुश थी, आज उसने पहली बार जाना था कि खुशी के आंसू होते कैसे हैं....
Comment
जी हाँ आंसू खुशी के बस ऐसे ही होते हैं. बहुत सुन्दर जीवंत दृश्य प्रस्तुत करती लघुकथा पर सादर बधाई स्वीकारें आद. डॉ. प्राची जी.
aadarniyaa praachii ji, saadar
bilkul सही चित्रण किया है. मनोदशा का .
बधाई.
मनोस्थिति का बाखूबी से वर्णन किया है आपने बधाई स्वीकारें
लघुकथा में आशा निराशा की कश्मकश पसंद करने के लिए आभार आदरणीय सौरभ जी. मुझे भी शायद शाब्दिकता ही ज्यादा लग रही थी इस लघुकथा में , इसीलिये मैं भी संतुष्ट नहीं थी इस अभिव्यक्ति से (कहीं कहीं नीरसता आ रही था .. :-)) ). इसे थोडा कम करने का प्रयास किया है.
आदरणीय लतीफ़ खान जी की टिप्पणी वास्तव में मिसाल स्वरुप ही है. पूर्णतः सहमत हूँ. सादर.
आदरणीय वीनस जी, लघुकथा के सार को एक दोहे में ढालने के लिऐ हार्दिक आभार. सादर.
मन चंचल उद्विग्न था, ना दिखती थी राह
देख परीक्षाफल हुआ, तन मन में उत्साह
आपकी लघुकथा का तानाबाना बेहतर बुना गया है जहाँ आस-निरास की मनोदशा का चित्रण हुआ है. कथ्य में शाब्दिकता थोड़ी कम होती. बधाई.
लतीफ़ खान साहब की विवेचना मुग्ध करने वाली है. आपकी इस रचना पर लतीफ़ ख़ान साहब की टिप्पणी उन युवकों के लिए मिसाल होनी चाहिए जो तथ्यपरक टिप्पणी करने में असक्षम हैं, चाहे वे बहाना जो दें. बस वाहवाह कर निकल लेते हैं या वाहवाह भर सुनना चाहते हैं.
आदरणीय लतीफ़ खान जी आपने बहुत खूबसूरत शब्दों में विवेचना की इस अभिव्यक्ति की...
हर इक आंसूं को पीडाओं का विज्ञापन मत कहिये ,,,
औ मुस्कानों को भी खुशियों का सत्यापन मत कहिये...वाह ! बिलकुल सच कहा.
हार्दिक आभार आपका आदरणीय
आदरणीया डॉ प्राची साहिबा ,,, ग़म और खुशी की लहरों पर डूबती उतराती नैया को जब खुशियों का किनारा मिल जाता है तब आँखों से बहते आँसुओं की क़ीमत वही जान सकता है जिस के दिल पर गुज़रती है ,,, ग़म और खुशी के बीच की क़श्मक़श को दर्शाती यह लघु कथा सचमुच काबिले-तारीफ़ है ,,, हर इक आंसूं को पीडाओं का विज्ञापन मत कहिये ,,,औ मुस्कानों को भी खुशियों का सत्यापन मत कहिये ,,, तहे-दिल से मुबारक बाद ..
इस अभिव्यक्ति को पसंद करने के लिए आदरणीया राजेश जी, आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी, आदरणीय अरुण कुमार जी, प्रिय पियूष जी, प्रिय कुमार गौरव जी आप सबका हार्दिक आभार.
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