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अभागे (लघुकथा) - रवि प्रभाकर

प्रैस काफ्रेंस देर शाम तक चली। बाल श्रम उन्मूलन के तहत आजाद करवाये बाल श्रमिकों को पुलिस प्रेस के समक्ष लाई थी। फोटो खींचे गए, भाषण दिया गया और थानेदार साहिब का साक्षात्कार भी लिया गया। पत्रकार काफ्रेंस के बाद चाय नाश्ता कर अपने घर की ओर जा रहे थे तो सुबह से भूखे बैठे बाल श्रमिकों की ओर देखकर एक कांस्टेबल धीरे से थानेदार साहिब के कान में फुसफुसाया:

“साहिब! अब इन बच्चों का क्या करना हैे?”
”बड़े साहिब की बिटिया की शादी है अगले हफ्ते, कितना काम होगा वहाँ, छोड़ आयो वहीँ पे इन ससुरों को. "


(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by savitamishra on August 4, 2014 at 11:52am

सुन्दर लघुकथा ....बधाई आप को

Comment by Meena Pathak on August 4, 2014 at 11:40am

दोहरा व्यक्तित्व ..............घर हो या बाहर हर जगह घातक 

सुन्दर लघुकथा ....बधाई आप को 


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Comment by rajesh kumari on August 4, 2014 at 10:47am

ऐसे डबल स्टेंडर्ड वाले लोग हर महकमे में मिल जायेंगे किन्तु पुलिस में तो इसकी कोई सीमा नहीं है...गिरगिट की तरह वक़्त के अनुसार रंग बदल जाते हैं मैडल और उन्नति पाने के लिए गेम खेलते हैं लघु कथा में सच में अभागे तो ये बच्चे ही हैं कहते हैं न आसमां से गिरे खजूर में अटके .बहुत प्रभाव शाली लघु कथा.बधाई आपको|   

Comment by रमेश कुमार चौहान on August 3, 2014 at 10:13pm

सच्चाई का चित्रण किया है आप ने, सादर बधाई

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 3, 2014 at 9:30pm

बस! यही सब कुछ सच है. बधाई आपको आदरणीय रवि जी

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on August 3, 2014 at 8:12pm

ऐसा ही होता है!

Comment by MAHIMA SHREE on August 3, 2014 at 5:43pm

  क्या कहा जाए। . लाचार हम और पंगु व्यवस्था, हार्दिक बधाई आपको

Comment by आशा शैली on August 3, 2014 at 4:04pm

:आइना दिखाती लघुकथा

Comment by विनय कुमार on August 3, 2014 at 1:24pm

ये विरोधाभास दीखता ही रहता है , बहुत अच्छी लघुकथा , बधाई..

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