२१२२ १२१२ २२
इससे बढ़कर कोई अनर्गल क्या ?
पूछिये निर्झरों से - "अविरल क्या ?"
घुल रहा है वजूद तिल-तिल कर
हो रहा है हमें ये अव्वल क्या ?
गीत ग़ज़लें रुबाइयाँ.. मेरी ?
बस तुम्हें पढ़ रहा हूँ, कौशल क्या ?
अब उठो.. चढ़ गया है दिन कितना..
टाट लगने लगा है मखमल क्या !
मित्रता है अगर सरोवर से
छोड़िये सोचते हैं बादल क्या !
अब नये-से-नये ठिकाने हैं..
राजधानी चलें !.. ये चंबल क्या ?
चुप न रह.. बोल तो.. अब आईने.. !
बोल, मुझसा कोई है विह्वल क्या ?
****************
-सौरभ
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(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
गीत ग़ज़लें रुबाइयाँ.. मेरी ?
बस तुम्हें पढ़ रहा हूँ, कौशल क्या ?
मित्रता है अगर सरोवर से
छोड़िये सोचते हैं बादल क्या !
चुप न रह.. बोल तो.. अब आईने.. !
बोल, मुझसा कोई है विह्वल क्या ? ....क्या गज़ब ! पढ़कर आनंद आ गया ! सादर प्रणाम सहित :)
//इससे बढ़कर कोई अनर्गल क्या ?
पूछिये निर्झरों से - "अविरल क्या ?" //
आपकी प्रत्येक रचना सोच को नया आयतन देती है। यहाँ भी आपकी इन पंक्तिओं ने आश्चर्यचकित कर दिया।
अब नये-से-नये ठिकाने हैं..
राजधानी चलें !.. ये चंबल क्या ?
बहुत खूब।
चुप न रह.. बोल तो.. अब आईने.. !
बोल, मुझसा कोई है विह्वल क्या ?
क्या बात है , आईने भी मौन ओढ़ रहे हैं , क्या विह्वलता है यह अपने आप में , बहुत सुन्दर।
बधाई कोई अर्थ नहीं रखती आदरणीय सौरभ पांडे जी , फिर भी , बहुत बहुत बधाई , सादर।
पूछिये निर्झरों से - "अविरल क्या... वाह क्या प्रश्न है... सार्थक
मित्रता है अगर सरोवर से
छोड़िये सोचते हैं बादल क्या ..... क्या कहने बहुत उत्तम
और इसके तो क्या कहने :
अब नये-से-नये ठिकाने हैं..
राजधानी चलें !.. ये चंबल क्या ... बहुत सुंदर गजल पढ़कर मजा आया, और मेरे लिए कविता का एक सबसे बड़ा फ़लक यह है कि पाठक को मजा आना चाहिए ... छोटी सी बात में बहुत बड़ी बात कह दी जाये , जैसे गागर मे सागर .......
सादर नमन ...
आदरणीय सौरभ जी
बहुत सुन्दर ग़ज़ल...ख़ास तौर पर काफिये तो चुन चुन के लिए हैं इसमें...मतले नें ही बाँध लिया
गीत ग़ज़लें रुबाइयाँ.. मेरी ?
बस तुम्हें पढ़ रहा हूँ, कौशल क्या ?................वाह ! अपनी लेखनी का श्रेय भी विषय वस्तु को ही समर्पित ...बहुत सुन्दर अंदाज
अब उठो.. चढ़ गया है दिन कितना..
टाट लगने लगा है मखमल क्या !.....................बहुत खूबसूरत ख़याल है , ऐसी नींद का तो जवाब नहीं की टाट भी मखमल का आनंद दे
अब नये-से-नये ठिकाने हैं..
राजधानी चलें !.. ये चंबल क्या ?..................जब राजधानी में ही सेफ ठिकाने हो तो छुपने के लिए तो चम्बल की शरण क्यों
चुप न रह.. बोल तो.. अब आईने.. !
बोल, मुझसा कोई है विह्वल क्या ? .................आईने के समक्ष अपनी हालत पर क्या तरस आया है.........:)))))हाहाहा , बहुत सुन्दर शेर हुआ है
इस सुन्दर ग़ज़ल पर हार्दिक बधाई आदरणीय
सादर.
वाह, बहुत सटीक और मुकम्मल गजल कही आपने सर, ढेरों बधाइयां स्वीकारें आ.सौरभ सर। सादर
परम आ. सौरभ जी सादर,
इससे बढ़कर कोई अनर्गल क्या ?
पूछिये निर्झरों से - "अविरल क्या ?" ....... बेजोड़ मतला
मित्रता है अगर सरोवर से
छोड़िये सोचते हैं बादल क्या ! ............. लाजबाब कहन
इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक सादर बधाई कबूल करें आदरणीय
//इससे बढ़कर कोई अनर्गल क्या ?
पूछिये निर्झरों से - "अविरल क्या ?"// "अनर्गल" और "अविरल" का क्या ही खूबसूरती से प्रयोग किया है - वाह ?
//घुल रहा है वजूद तिल-तिल कर
हो रहा है हमें ये अव्वल क्या ?// शेअर बढ़िया है मगर "अव्वल" (यानि सर्वप्रथम) शब्द का इस सन्दर्भ में कुछ अखर सा रहा है.
//गीत ग़ज़लें रुबाइयाँ.. मेरी ?
बस तुम्हें पढ़ रहा हूँ, कौशल क्या ?// अय हय हय !! क्या मुलायमियत है।
//अब उठो.. चढ़ गया है दिन कितना..
टाट लगने लगा है मखमल क्या !// लाजवाब !
//मित्रता है अगर सरोवर से
छोड़िये सोचते हैं बादल क्या !// बहुत खूबसूरत शेअर। हासिल-ए-ग़ज़ल शेअर
//अब नये-से-नये ठिकाने हैं..
राजधानी चलें !.. ये चंबल क्या ?// यानि कि बाहर आयो अपने हुजरे से और नाप लो आसमान की ऊंचाईओं को - गज़ब, गज़ब, गज़ब !!
//चुप न रह.. बोल तो.. अब आईने.. !
बोल, मुझसा कोई है विह्वल क्या ? // ये शेअर भी कमाल का हुआ है। हार्दिक बधाई स्वीकारें इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए आ० सौरभ भाई जी।
आदरणीया राजेश कुमारीजी.. आपको प्रस्तुति पसंद आयी, रचनाकर्म सार्थक हुआ.
सादर धन्यवाद
आदरणीय श्याम नारायणजी. प्रस्तुति पर समय देने के लिए हार्दिक धन्यवाद.
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