१२२२ १२२२ १२२२
अकेले पन को कर ले तू , ठिकाना अब
क़सम ली है, तो उस चौखट न जाना अब
समय बदला तो वो बदले , नज़र बदली
चलो कर लें निकलने का बहाना अब
वही आंसू , वही आहें , वही ग़म है
कहीं पे ख़त्म हो जाये फ़साना अब
झिझक ये ही हरिक दिल में, यही डर है
कहेगा क्या जो जानेगा ज़माना अब
सुनो तितली , सुने पंछी बहारें भी
मेरे उजड़े हुये घर में , न आना अब
कबूतर बच के गुम्बद से कहाँ जाएँ
कहाँ ढूंढें, कहाँ कर लें ठिकाना अब
वही ज्ज़्बा, वही बातें , वही दिल है
मगर चेह्रा लगा मुझको पुराना अब
नक़ाब उलटा अयाँ सच की हुई शक़्लें
करोगे क्या बताओ तो बहाना अब
*******************
मौलिक अवँ अप्रकाशित ( संशोधित )
Comment
आदरणीया राजेश जी , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।
आ. नीरज भाई , सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।
baut sundar rachnaa
अनुज
छा गए भाया i क्या उम्दा निभाया i बहुत मजा आया i हंसाया, रुलाया, गुदगुदाया i सादर i
बहुत सुन्दर ग़ज़ल आदरणीय गिरिराज जी ,हार्दिक बधाई !
जीवन की ऊँच-नीच ,रिश्तों का फिर बदल और कई दुसरे बिंदुओं पर बहुत सुन्दरता से प्रकाश डाला है आप ने आदरणीय |
झिझक ये ही हरिक दिल में, यही डर है
कहेगा क्या जो जानेगा ज़माना अब................satik , umda, ............bahut umda
कई दिनों बाद दुबारा साईट से जुड़ पाया हूँI बहुत अच्छा लगा I भंडारी भाई ,सुंदर गज़ल के लिए बधाई I
"सुनो तितली , सुने पंछी बहारें भी
मेरे उजड़े हुये घर में , न आना अब"
अरे वाह ! उम्दा I
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