इश्क की हद से गुज़र कर देखा,
जीते जी हमने तो मर कर देखा।
राह में तेरा वो बिछड़ जाना,
कितना तनहा सा वो सफ़र देखा।
छोड़कर तुझको जब हुए रुखसत,
हमने कई बार पलटकर देखा।
काश तू फिर कहीं पे मिल जाए,
हर गली हमने ढूँढकर देखा।
ख्वाब में भी कभी तो तू आये,
हमने नींदों में जागकर देखा।
होके तनहा सदा न देता हो,
आहटों पे भी गौर कर देखा।
ऊषा पाण्डेय.
अप्रकाशित व मौलिक
Comment
आदरणीय मेरे सभी गुरुजनों मेरी रचना"इश्क की हद से....." पर आप सब ने मुझे मेरी जो भी कमियां बताई
उसके लिए मैं आप सबकी आभारी हूँ और भविष्य में मैं इन्हें सुधारने का प्रयत्न करुँगी और ये आप सब से मैं ये
गुज़ारिश भी करुँगी की इसी तरह आगे भी मेरा मार्गदर्शन कीजियेगा
आदरणीया उषा जी , रचना के प्रयास के लिये बधाई ! बहुत सार्थक चर्चायें हुई हैं , खयाल कीजियेगा ।
कोशिश को सलाम करता हूँ
गज़ल तेरी तेरे नाम करता हूँ
रदीफ़ काफिए से बावस्ता नहीं
मैं गुनाह खुले-आम करता हूँ
रचना बहुत अच्छी है, बधाई साथ ही आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी की बातों का संज्ञान लेंगी तो उचित होगा..
काश तू फिर कभी मिल जाए, किन्ही राहों में,
बस यही सोच कर, हर राह पर चल कर देखा।आदरणीया उषा जी सुन्दर रचना पर बधाई स्वीकार करें !
इश्क की हद से, गुज़र कर देखा, 2122-2122-22
जीते जी हमने तो, मरकर देखा। 2122-2122-22 (मात्रा गिराने के पूरी छूट लेने पर)
राह में तेरा वो, बिछड़ जाना, 2122-2122-22
यूं ख़ुशी से भी, बिछड़कर देखा। 2122-2122-22 (बहर अनुसार संशोधन )
इसके बाद बहर विस्तार पाती नज़र आती है -
आदरणीय उषा जी अगर ये ग़ज़ल होती तो मतले के अनुसार शेष अशआर कुछ यूं भी कहे जा सकते है-
छोड़ के तुझको हम, रूखसत तो हुए,................... छोड़ के हम जो हुए रुखसत यूं
बढ़ते क़दमों ने कई बार, पलट कर देखा।............. और कदमों ने पलटकर देखा
काश तू फिर कभी मिल जाए, किन्ही राहों में, ...... काश मिल जाए कहीं राहों में
बस यही सोच कर, हर राह पर चल कर देखा।...... राह में यूं ही निकलकर देखा
खाब में ही कभी, इक रोज़ कभी तू आये.............. ख़ाब में यूं ही कभी आए तू
खुली आँखों से ही, नींदों में उतर कर देखा।........... नींद में ऐसे उतरकर देखा
पुकारता न हो, तनहा मुझको,......................... आज फिर से वो सदा आई है
कब्र से जाग कर, कई बार उठ कर देखा।.......... कब्र सेआज निकलकर देखा
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