२१२ २१२ २१२
वो वफ़ा जानता ही नहीं
इस खता की सजा ही नहीं
फिर वही रोज जीने की जिद
जीस्त का पर पता ही नहीं
शहर है पागलों से भरा
इक दिवाना दिखा ही नहीं
पूजता हूँ तुझे इस तरह
गो जहां में खुदा ही नहीं
खा गए थे सड़क हादसे
सारे घर को पता ही नहीं
मौलिक व अप्रकाशित
गुमनाम पिथौरागढ़ी
Comment
धन्यवाद दोस्तों आपकी समालोचना कुछ न कुछ सिखाती ही है ........... सौरभ जी धन्यवाद जो आपकी कृपा दृष्टि हुई आपने समय दिया खुर्शीद जी आपका भी धन्यवाद जो आपने मेरी रचना की किमत बड़ा दी ........आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय गुमनाम भाई सुन्दर ग़ज़ल ...फिर वही रोज जीने की जिद ....जीस्त का पर पता ही नहीं....क्या बात है , हार्दिक बधाई !
Priya Gumnami Ji,
Sundar Gazhal ke liye bahut badhai.
Teri baat johte rahe,diwana bana diya
Log kahte hain,paagal begana bana diya
बहुत सुन्दर गजल। ढेरों दाद कुबूल करें। सादर |
पूजता हूँ तुझे इस तरह
गो जहां में खुदा ही नहीं
आदरणीय गुमनाम सर उम्दा ग़ज़ल हुई है |सादर अभिनन्दन |अगर आपकी इज़ाज़त हो तो मंच की दो अशहार की फरमाइश ख़ाकसार पूरी करदे |आपको पसंद न हो तो डीलिट कर दीजियेगा |क्षमा प्रार्थना के साथ बतौर नज़राना
कारवां जा रहा है कहाँ
सामने रास्ता ही नहीं
आइना हाथ में है मगर
वो इधर झांकता ही नहीं
सादर
वो वफ़ा जानता ही नहीं
इस खता की सजा ही नहीं
वफ़ा का न जानना क्या ऐसी ख़ता है जिसकी सज़ा तक न मुकर्रर हो सके ? भाई, मुझे ऐसा नहीं लगता. यह अवश्य है कि कुछ नियमों को न जानना क़नूनन गलत होता है. लेकिन वफ़ा का न जानना क्या ऐसी श्रेणी में आयेगा ? यह तो गुण है. मतला का ख़याल बहुत बढ़िया है इसलिए प्रस्तुतीकरण और बढिया हो सकता था, गुमनाम भाई.
फिर वही रोज जीने की जिद
जीस्त का पर पता ही नहीं
वाह क्या ख़याल है ! सानी को सीधा रखिये न - ज़िन्दग़ी का पता ही नहीं. यह शेर क्या और निखर नहीं उठेगा ?
शहर है पागलों से भरा
इक दिवाना दिखा ही नहीं
अरे वाह ! बहुत खूब ! पागल और दीवाना का अन्तर बढिया उभर आया है. बहुत खूब !
पूजता हूँ तुझे इस तरह
गो जहां में खुदा ही नहीं
वाह, ये क़ाफ़िरी ! बधाई-बधाई ! .. :-))
खा गए थे सड़क हादसे
सारे घर को पता ही नहीं
मैं तो इस शेर को कुछ यों करता भाई..
खा रहे हैं सड़क हादसे
क्यों महल को पता ही नहीं
प्रथम दृष्ट्या जो कुछ मुझे समझ में आया, निवेदित है. प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ, गुमनाम भाई.
शुभेच्छाएँ
आदरणीय गुमनाम सर जी छोटी बह्र की बेहतरीन ग़ज़ल हुई हरेक अशआर उम्दा है. ये दो अशआर तो कमाल हुए है -
फिर वही रोज जीने की जिद
जीस्त का पर पता ही नहीं
पूजता हूँ तुझे इस तरह
गो जहां में खुदा ही नहीं.... दिल से दाद कुबूल कीजिये
एक दो अशआर और होते तो ग़ज़ल मुकम्मल लगती . वैसे पांच अशआर है पर इस पाठक की दो अशआर की मांग निवेदित है.
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online