सरगम भरता, कल-कल करता,
झर-झर झरता निर्झर सस्वर I
तम को छलता, पग-पग चलता,
धक्-धक् जलता सूरज सत्वर II
सन-सन बहता, गुम-सुम रहता,
क्या-कुछ कहता रह-रह मारुत I
मह-मह उपवन, बह-बह कर मन,
यह क्या उलझन है रुत अजगुत II
छन-छन पायल, तन-मन घायल,
मन्मथ मायल आतुर बाले !
झन-झन झनके, कंगन खनके ,
बोले – ‘प्रिय हैं आने वाले II’
थक-थक नैना, बुद-बुद बैना,
पचि-पचि रैना, अंसुवन काटी I
डिग-डिग संयम, धिग-धिग प्रियतम,
ढिग-ढिग बंधन की परिपाटी II
यदि आ जाते, रस सरसाते,
मधु बरसाते, मैं मदमाती I
मंदिर मैय्या पुहुप दुनैय्या,
लावा-लैय्या, मैं भर लाती II
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
अनुज भंडारी जी
आपका आभार .
रचना की गेयता अंत तक जाते-जाते बहुगुणी हो जाती है, आदरणीय गोपाल नारायनजी.
हार्दिक धन्यवाद.
सास्वर शब्द मुझे समझ में नहीं आया.
एक बात,
यदि आपने इस रचना के लिए पादाकुलक शब्द का प्रयोग किया है तो क्या प्रति चरण चार चौकल के अलावा पादाकुलक के अन्य नियम लागू नहीं होने चाहिए? चौपाई की एक अर्द्धाली क्याभिन्न तुकान्तता की हो सकती है ? फिर इस पादाकुलक ने क्या गुनाह किया है ?
सुंदर भाव लिए, उत्तम रचना के लिए बधाई .... सादर |
बहुत सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय ,समान् स्वर के शब्दों का बेहतरीन चयन
सन-सन बहता, गुम-सुम रहता,
क्या-कुछ कहता रह-रह मारुत I
मह-मह उपवन, बह-बह कर मन,
यह क्या उलझन है रुत अजगुत II अतिसुन्दर
वैसे हर बंद सरस है ...बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीय डॉक्टर गोपाल नारायण सर , बहुत ही शानदार/ जबरदस्त रचना , हार्दिक बधाई ! सादर
अति सुन्दर! मज़ा आ गया!मन आन्नद-विभोर हो गया! अभिनन्दन
यदि आ जाते, रस सरसाते,
मधु बरसाते, मैं मदमाती I
मंदिर मैय्या पुहुप दुनैय्या,
लावा-लैय्या, मैं भर लाती II
वाह आदरणीय वाह बेहद खूबसूरत प्रस्तुति … हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय।
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , क्या लाजवाब रचना की है , शब्दों का चयन भी बहुत सुन्दर लगा , पढ़ के मज़ा आ गया । आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥
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