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चल उम्मीदें बेच के आएं - लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

2222    2222    2222    222

*******************************
माना केवल रात ढली है  हमको उनका दीद हुए                  दर्शन
पर लगता है सदियाँ गुजरी अपने घर में ईद हुए /1

*******
हमने तो कोशिश की वो भी हमसे जुड़ते यार मगर
रिश्तों के पुल  बरसों पहले  उनसे  ही तरदीद हुए /2        रद्द करना / तोडना 

*******
भीड़ जुटाई नाम से अपने पर उनका ही रंग जमा
हर महफिल में हम ऐसे ही सौ सौ बार जरीद हुए /3          तन्हा/अकेले

*******
जाने कैसा आब था रूख पे हर फनकारी व्यर्थ गई
करने निकले थे  उस्तादी  लेकिन  यार मुरीद हुए /४          शिष्य

*******
मत इठला तू नगरों पर यूँ आकर ये भी देख जरा
सुविधाओं से वंचित  कितने गाँव यहाँ तकरीद हुए /5        निर्जन / उजाड़

*******
पापों की हद जब भी होगी और कयामत आएगी
जन्मों बीते यार ’मुसाफिर’ इसकी भी तकीद हुए /6          चेतावनी

*******
आशावादी हम तुम दोनों हाथ पे फिर क्यों हाथ धरें
चल उम्मीदें  बेच  के  आएं  उनको  नाउम्मीद हुए /7

*******
रचना मौलिक और अप्रकाशित




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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 14, 2015 at 10:47am

आ0 तनुजा बहन, उत्साहवर्धन के लिए आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 13, 2015 at 8:57am

आदरनीय लक्ष्मण भाई , कठिन काफिया ले के बढिया निभा लिये , बहुत अच्छी गज़ल कही है. दिली बधाइयाँ ।

चल उम्मीदें  बेच  के  आएं  उनको  नाउम्मीद हुए    ,  इस मिसरे मे बात आप कह नही पाये ऐसा लगता है ,  एक नज़र और कर देखिये ।

Comment by Sulabh Agnihotri on August 12, 2015 at 5:49pm

बहुत सुन्दर गजल हुयी है लक्ष्मण जी, बधाई स्वीकार करें।

ये शेर तो बिलकुल गजब का हुआ है -

जाने कैसा आब था रूख पे हर फनकारी व्यर्थ गई
करने निकले थे  उस्तादी  लेकिन  यार मुरीद हुए 

Comment by shree suneel on August 12, 2015 at 4:49pm
जाने कैसा आब था रूख पे हर फनकारी व्यर्थ गई
करने निकले थे उस्तादी लेकिन यार मुरीद हुए... व्वाहह!.. बहुत ख़ूब!
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी बधाई आपको इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए.
Comment by मनोज अहसास on August 12, 2015 at 3:21pm
बहुत खूबसूरत सर
खूबसूरत ग़ज़ल
बधाई
सादर
Comment by pratibha pande on August 12, 2015 at 2:17pm
बहुत अच्छी ग़ज़ल है ,बधाई आपको आ० लक्ष्मण जी

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 12, 2015 at 12:50pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी बढ़िया ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद हाज़िर है.

Comment by Ravi Shukla on August 12, 2015 at 12:44pm

आदरणीय लक्ष्‍मण जी सुन्‍दर गजल के लिये बधाई स्‍वीकार करें ।

Comment by Tanuja Upreti on August 12, 2015 at 11:28am

बहुत खूबसूरत रचना के लिए बधाई लक्षमण जी 

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