ज़िंदगी का रंग फीका था मगर इतना न था
इश्क़ में पहले भी उलझा था मगर इतना न था
क्या पता था लौटकर वापस नहीं आएगा वो
इससे पहले भी तो रूठा था मगर इतना न था
दिन में दिन को रात कहने का सलीका देखिये
आदमी पहले भी झूठा था मगर इतना न था
अब तो मुश्किल हो गया दीदार भी करना तिरा
पहले भी मिलने पे पहरा था मगर इतना न था
उसकी यादों के सहारे कट रही है ज़िंदगी
भीड़ में पहले भी तन्हा था मगर इतना न था
टुकड़ा टुकड़ा हो गया है ज़िंदगी का आईना
इससे पहले भी मैं टूटा था मगर इतना न था
उसके जाने से बढ़ी 'सूरज' मेरी तिष्नालबी
प्यार के दरिया में प्यासा था मगर इतना न था
डॉ सूर्या बाली 'सूरज'
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
बड़ी ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है आरणीय सूर्या साहब। दिली दाद कुबूल करें।
टुकड़ा टुकड़ा हो गया है ज़िंदगी का आईना
इससे पहले भी मैं टूटा था मगर इतना न था
उसके जाने से बढ़ी 'सूरज' मेरी तिष्नालबी
प्यार के दरिया में प्यासा था मगर इतना न था
वाह आदरणीय सूरज बाली जी वाह .... हर लफ्ज़ खूबसूरत अहसासों से लबरेज़ नज़र आता है ..... हर मिसरा कुछ बयां करता है .... दिलकश अशआर ,दिलकश अंदाज़ .... शे'र दर शे'र दिल से दाद कबूल फरमाएं आदरणीय।
दिलसे दाद कुबूल करें आदरणीया सूर्या बालीजी. वाह वाह !
एक अरसे बाद आपको इन पन्नों में देखना रोमांचित कर रहा है ! विश्वास है, आपका ग़ज़लकार अब ज़ल्दी-ज़ल्दी आया करेगा.
शुभ-शुभ
दिन में दिन को रात कहने का सलीका देखिये
आदमी पहले भी झूठा था मगर इतना न था -- आदरणीय सूर्या बाली जी , इस हासिले ग़ज़ल शे र के लिये और पूरी ग़ज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥
आदरणीय डॉ सूर्या बाली 'सूरज' जी बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई है बधाई । शायद आपको पहली बार मंच पर पढ रहे है । बहुत अच्छा लगा
दिन में दिन को रात कहने का सलीका देखिये
आदमी पहले भी झूठा था मगर इतना न था बहूत खूब बधाई ।
आदरणीय डॉ सूर्या बाली 'सूरज' जी बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद और मुबारकबाद कुबूल फरमाएं.
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